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___ इसलिये आगम के आगे अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क के लिये तो कोई स्थान ही नहीं है। हाँ समीक्षक ऐसा आगम उपस्थित कर सके तो अवश्य ही उसके सामने हमें अपना सिर झुकाना होगा, किन्तु शब्द प्रयोग के आधार पर किसी बात का निर्णय नहीं हुआ करता, सिद्धान्त ही सर्वत्र मार्गदर्शक होता है।
उदाहरणार्थ उपादान के लक्षण आगम में तीन प्रकार से वर्णित हैं - एक प्रमाण दृष्टि से, जिसके अनुसार अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य को उपादान कहते हैं, दूसरा द्रव्याथिकनय से, जिसके अनुसार सब मिट्टी घट का उपादान कहीं जाती है। तीसरा पर्यायाथिक (ऋजुसूत्र) नय से, जिसके अनुसार घट परिणमन के सन्मुख मिट्टी ही घट का उपादान है । . अब देखना है कि सर्वत्र आगम में जो कार्य-कारण भाव की व्यवस्था है, वह किस आधार पर की गई है । द्रव्याथिकनय से मानने में तो भव्य निगोदिया जीव भी मोक्ष का उपादान बन जाता है। समीक्षक ने जो वाह्य निमित्त के दो भेद स्वीकार करके प्रेरक निमित्त के आधार पर कार्यकारणभाव की व्यवस्था बनाकर स. पृ. १६ में अपना यह मंतव्य प्रगट किया है कि "उपादान की कार्योत्पत्ति में" प्रेरक निमित्तों की प्रेरणा इसलिये आवश्यक है कि प्रेरणा प्राप्त किये विना उपादान कार्योत्पत्ति की स्वाभाविक योग्यता के सभीव में भी अपने में उस कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता है" आदि । इसी प्रकार इसी आधार पर स. पृ. ५१ में जो यह लिखा है कि "क्योंकि उपादान की कार्यरूप परिणति में वह वाह्य सामग्री आवश्यक एवं अनिवार्य रूप से होती है। उसके विना उपादान भी पंगु रहता है। दोनों की संघटना से ही कार्य होता है।" सो पूर्व-पक्ष का यह कथन भी इन प्रेरक निमित्तों की बलवत्ता को एकान्तं से सिद्ध करता है। पूर्वपक्ष ने इस आधार पर दो प्रकार के निमित्त स्वीकार करके जो प्रेरक निमित्तों का लक्षण किया है कि "प्रेरक निमित्त वे हैं, जिनके साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती हैं।" इसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी द्रव्य का कोई भी परिणमनरूप कार्य नियत नहीं है । वह द्रव्यं जब उदासीन निमित्त मिले तव तो वह द्रव्य अपने आधार पर परिणमेंगे, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य जैसा अपना परिणमन कार्य करेगा वैसा ही निमित्त रहेंगा। यदि बीच में प्रेरक निमित्त आ जायगा तो प्रत्येक द्रव्य अपने आधार पर होने वाले परिणमनं को छोड़कर प्रेरक निमित्त जैसा होगा उस रूप में उसे परिणंमना पड़ेगा," किन्तु निमित्तों की यह व्यवस्था कैसे बने इसी के लिए समीक्षक के प्रमाण की अपेक्षा और ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा उपादान के लक्षणों को तिलांजलि देकर अर्थात् दूर से ही नमस्कार कर आगम में द्रव्याथिक-नय से स्वीकृत लक्षण को अपनी प्ररूपणा में मुख्यता से मान्यता दी है। इससे उस पक्ष ने कई लाभ देखे । एक तो उसे यह लक्षण आगम के अनुसार है यह लिखने में कोई बाधा नहीं दिखाई दी। दूसरे अपनी काल्पनिक मान्यतानुसार तोड़-मरोड़कर पागम के वचनों का अर्थ करने में सहजता प्राप्त हो गई। तथा तीसरे जिन्होंने आगम का सम्यक्-प्रकार से परिशीलन नहीं किया है ऐसे बहुजन समाज के अनुकूल पड़ने से अपनी वाहवाही बटोरने में अनुकूलता प्राप्त हो गई।
___इससे लाभ यह हुआ कि आगेम में सर्वत्र स्वीकृत उपादान के लक्षण को छोड़कर मात्र अपनी मान्यता के अनुसार की गई उपादान की व्युत्पत्ति के आधार पर जो परिणमन को स्वीकार