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कथन नं० ७१ का समाधान :- इस कथन में समीक्षक का जो यह कहना है कि " पूर्व पक्ष के उपर्युक्त कथन से उत्तर पक्ष के कथन में मात्र यह विशेषता है कि उत्तर पक्ष सभी द्रव्यों की पड्गुण हानि - वृद्धिरूप स्वप्रत्यय पर्यायों के विषय में व उनमें यथासंभव विद्यमान उपर्युक्त शेष सभी स्व-परप्रत्यय पर्यायों के विषय में मौन रहकर केवल श्रात्मा की कर्मों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होनेवाली स्वभाव पर्यायों को स्वप्रत्यय व कर्मों के उदय में होनेवाली विभावपर्यायों को स्व-परप्रत्यय स्वीकार करता है, इसलिये दोनों पक्षों के परस्पर भिन्न कथनों में केवल अपेक्षाकृत भेद रहने के कारण विवाद के लिये कोई स्थान नहीं है ।"
इस सम्बन्ध में श्रागम यह है
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पज्जा दुवियप्पो सपरावेक्खो य गिरवेक्खो ( नियमसार गाथा - १४ ) इसका और भी स्पष्ट खुलासा करते हुए नियमसार गाथा २८ में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में खुलासा किया है । इसमें स्वभाव पर्याय को परनिरपेक्ष और स्कन्ध पर्याय को स्व-परसापेक्ष पर्याय, विभाव पर्याय स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है । लगता है कि समीक्षक को पर्याय विषयक अपनी भूल समझमें आ गई है । इसलिये वह यह लिखकर कि “इसलिये दोनों पक्षों परस्पर भिन्न कथनों में केवल अपेक्षाकृत भेद रहने के कारण विवाद के लिये कोई स्थान नहीं है ।" इस विषय की विशेष चर्चा नहीं की अगर विचार करके देखा जाय तो पर्याय विषयक यह एक ही अनर्गल कथन नहीं है, ऐसे उसने और भी अनर्गल कथन किये हैं जिनसे उस पक्ष के पूर्व के तीन दौर और समीक्षक की यह समीक्षा भरी पड़ी है और जिनका वारवार हमें खंडन करना पड़ रहा है । यह हमारा आरोप झूठा नहीं है, किन्तु यथार्थ है, क्योंकि न तो ग्रागम में अनेक योग्यतावाले समर्थ उपादान का कथन दृष्टिगोचर होता है और न ही समर्थ उपादान के रहते हुए केवल बाह्य निमित्तों के बल पर समर्थ उपादान का कार्य श्रागे-पीछे होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । इतना ही नहीं; वह पक्ष बाह्य निमित्त में अयथार्थ कारणता तो स्वीकार करता है परन्तु समर्थ उपादान के कार्य में उसकी सहायता को यथार्थ मानता है । यह भी एक विचित्र बात है । इस कथन में अन्य जितना लिखा है वह सारहीन होने से विचार कोटि में नही आता । यहाँ हम इतना स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जिसे समीक्षक श्रयथार्थ कारण कहता है उसे यदि वह उपचरित कारण कहे तो उसका ऐसा कहना योग्य होगा प्रोर इसी प्रकार यदि वह निमित्तों को भी यथार्थ न कहकर उपचरित कहता, तो उसका यह कहना भी योग्य होता ।
कथन नं. ७२ का समाधान :- हमने स्वभाव पर्याय को त. च. पू. ६८ में स्व पर प्रत्यय नहीं लिखा है, क्योंकि स्वभाव पर्याय की उत्पत्ति में वाह्य निमित्त दृष्टि में गौण रहता है फिर भी
यह हमारे ऊपर समीक्षक का भ्रमपूर्ण
पृ. ६८ में स्वभाव पर्याय को स्व पर प्रत्यय हमने लिखा है आरोप है । विभाव पर्याय अवश्य ही स्व-पर प्रत्यय होती है, क्योंकि पर में इष्टानिष्ट बुद्धि होने से वह होती है । पर स्वभाव पर्याय में यह दोप दृष्टिगोचर नहीं होता है, इसलिये उसे श्रागम पद-पद
पर परनिरपेक्ष ही स्वीकार किया गया है । आगम में कहीं भी हमें गोचर नहीं हुई, जिसमें गौणरूप से निमित्त को न स्वीकार कर जो
ऐसी कोई स्वप्रत्यय पर्याय दृष्टिमात्र पड्गुण हानि वृद्धिरूप मानी
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