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उपर्युक्त सिद्धान्त समीक्षक को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये । इतना अवश्य है कि स्वभाव पर्याय के होने में निमित्त अवश्य होता है, पर वह दृष्टि में गोरण रहता है और बुद्धि में स्वभाव का श्रालम्वन मुख्य रहता है, इसलिये वह परनिरपेक्ष कहलाती है । खुलासा नियमसार गाथा २६ की सं. टीका के आधार से पूर्व में कर ही आये हैं ।
कथन नं. ७० का समाधान :- हमने स्वा० समन्तभद्र आचार्य की " वाह्य तरोपाधिसमग्रतेय" इस कारिका में पठित " द्रव्यगतस्वभावः " पद के अर्थ करने में कोई भूल नहीं की है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का यह स्वभाव है कि जब वह अपने आभ्यंतर उपाधि की स्थिति में पहुँचता है तब उसके कार्य में जिसे हम वाह्य निमित्त कहते हैं; वह भी अपने आभ्यंतर उपाधि की स्थिति में पहुँच जाता है और इसप्रकार एक के काल में दूसरा द्रव्य स्वयं निमित्त पदवी को प्राप्त हो जाता है । इसके लिये कर्मशास्त्र का बंध और उदय प्रकरण साक्षी है, क्योंकि जिस समय क्रोध कषाय कर्म का उदय होता है उसी समय प्रात्मा क्रोध कषायरूप परिणमता है और जिस समय आत्मा क्रोध कषायरूप परिणमता है उसी समय नये कर्म का वन्ध होता है । इसके लिये समयसार गा. ८१ आदि पर उसको दृष्टिपात करना चाहिये। इसी भाव को ध्यान में रखकर उक्त पद का अर्थ किया था । समीक्षक हमारे द्वारा किया गया यह अर्थ यदि कल्पित मानता है तो उसे श्रागम प्रमाण देकर उसे सिद्ध करना चाहिये झूठा आरोप लगाने मात्र से कोई लाभ नहीं, इससे श्रागम नहीं बदल जायगा ।
आगे तादृशी जायतेबुद्धिः " इसके आधार पर हमने जो कुछ भी लिखा है, वह यथार्थ है, किन्तु समीक्षक का यह कथन इसलिये अवश्य ही विचारणीय है, क्योंकि वह हमारी ओर से ऐसा मानता है कि हम मानते हैं कि उपादान स्वयं कार्य की उत्पत्ति के समय अपने अनुकूल निमित्तों को एकत्रित कर लेता है" सो यह हमारी मान्यता नहीं है । ऐसा आगम विरुद्ध कथन वही कर सकता है । कोई किसी को जुटाता नहीं है, अपने-अपने परिणमन स्वभाव के कारण जब एक द्रव्य उपादान होकर स्वयं कार्यरूप परिणमता है तव दूसरा द्रव्य कालप्रत्यासत्तिवश स्वयं अपने नियत उपादान के अनुसार कार्य की भूमिका में आकर उसका ( दूसरे द्रव्य के कार्य का) सहज निमित्त हो जाता है । यह अनादि परंपरा है, जिसका कभी भी वारण नहीं किया जा सकता । अन्यथा विकल्प और हाथ आदि रूप क्रिया परिणत कुंभकार स्वयं प्रायोगिक निमित्त नहीं हो सकता । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय मिट्टी स्वयं घट पर्यायरूप से परिरणमती है उसी समय कुंभकार स्वयं प्रायोगिक निमित्तमात्र होता है ।
किया है वह यथार्थ है । रही वाह्य निमित्त की पृ. ४ में ) असत् कारण मानता है तो जिसे करता है वह उपचरित नहीं होगा तो और
" द्रव्यगतस्वभावः का हमने जो यह अर्थ वात, सो जब समीक्षक वाह्य निमित्त को स्वयं ही ( स वह पक्ष उपादान के कार्य में बाह्य निमित्त की सहायता क्या होगा ? चाहे उपचरित कारण कहो या प्रसद्भूत व्यवहारनय से कारण कहो, दोनों का अर्थ एक ही है । इसके लिये देखो जयधवला पु. ७ पृ ११७१ हाँ यदि वह उपचरित कहना यथार्थ है यह कहना चाहता है, तो कोई बात नहीं ।