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कथन नं. ५६ का समाधान:-स पृ. ६५-६६ पर समीक्षक के द्वारा लिखा गया यह वचन देखने में नहीं आता कि "अपरपक्ष इष्टोपदेश के नाज्ञो विज्ञत्वमायाति इत्यादि श्लोक को द्रव्यकर्म के विषय में स्वीकार नहीं करता, क्यों स्वीकार नहीं करता, इसका उसकी ओर से कोई कारण नहीं बतलाया गया है।" अतः इस आधार पर समीक्षक द्वारा इस कथन में जितनी समीक्षा की गई है, वह हमारे उपर लागू नहीं होती। . . स. पृ. ६५-६६ को देखने से इतना संकेत हम अवश्य कर देना चाहते हैं कि कार्यकाल में कौन कारण गौरण होता है और कौन कारण मुख्य, यह सवाल ही नहीं उठता। यह तो विकल्प का विषय है । कहाँ हम किसको गौण या मुख्य कहते हैं, यह विवक्षा के उपर निर्भर है।
कथन नं. ६० का समाधान :-विवक्षित पर्याय विशिष्ट द्रव्य ही विवक्षित कार्य का समर्थ उपादान होता हैं यह कथन हम पहले स्पष्टीकरण करते हुए सप्रमाण सिद्ध कर आये हैं । यह जैनदर्शन की सम्यक व्यवस्था है । ऐसी अवस्था में समीक्षक द्रव्ययोग्यता को उपादान मानकर निमित्त के बलपर यदि कार्य की उत्पत्ति की मान्यता की हठ नहीं छोड़ता है तो त. च. पृ. २५ पर हमने जो यह आपत्ति उपस्थित की है कि यदि केवलं द्रव्य-योग्यता को उपादान मानकर उससे निमित्त के वलपर घट की उत्पत्ति के समान उससे पट की उत्पत्ति भी हो जानी चाहिये, क्योंकि पुद्गल सामान्य की अपेक्षा घट और पट दोनों ही पुद्गल के के कार्य हैं। यदि वह कहे कि मिट्टी में पट कार्यरूप द्रव्य योग्यता नहीं पायी जाती, इसलिये मिट्टी से पट नहीं बन सकता । सो समीक्षक का यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि जिसप्रकार मिट्टी में पट बनने की योग्यता नहीं पायी जाती, क्योंकि उस मिट्टी से घट की उत्पत्ति न होकर स्थूल दृष्टि से स्थास पर्याय की ही उत्पत्ति होती है, अतः यह मानना ही उचित प्रतीत होता है कि जिस पर्याय विशिष्ट मिट्टी से अनन्तर समय में घटपर्याय नि होती है, वह मिट्टी घट पर्याय का समर्थ उपादान हो सकती है, अन्य मिट्टी नहीं ।
आगे चलकर पृ. १४७ में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "कोई भी द्रव्य किसी भी विवक्षित पर्याय के परिणमन के सन्मुख तभी होता है, जब प्रेरक निमित्त कारणभूत अन्य सामग्री के सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है" सो उसका यह कथन भी इसलिये आगम विरुद्ध है, क्योंकि विवक्षित कार्यकाल में ही विवक्षित अन्य सामग्री निमित्त मात्र होती है, ऐसी आगमिक परम्परा है, इसलिये जभी और तभी का सवाल ही नहीं उठता । जैसा कि छहढाला ढाल-४ पद-१ में कहा है -
सम्यक साथे ज्ञान होय पै भिन्न अंराघो। लक्षण श्रद्धा जान दुहू में भेद अबाधो ॥ सम्यक कारण जान ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होते हू प्रकाश दीपक ते होई ।। . तथा इसी अर्थ को तत्वार्थवार्तिक में भी स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है -
यदा मृदः स्वयं अन्तर्भवन्घटपरिणामाभिमुख्य दण्ड-चक्र-पौरुषेय-प्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति ।