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(३) पर में " ममेदं" इस प्रसद्भूत व्यवहार का नाम ही संयोग है । अन्यथा दो वस्तुग्रों में स्वरूप से संयोग संबंध नहीं बनता । ऐसी अवस्था में समीक्षक का यह लिखना कि "उसीप्रकार उपादान कारणभूत वस्तु की उस कार्यरूप परिणति में सहायक होने के आधार पर कार्य के प्रति निमित्त कारणभूत वस्तु में स्वीकृत कारणता भी वास्तविक है ।" सो उसका ऐसा लिखना इसलिये हास्यास्पद प्रतीत होता है, क्योंकि एक ओर तो वाह्य निमित्त में कारणता को वह श्रयथार्थ स्वीकार करता है । ( स. पू. ४ पैरा ७ ) और दूसरी ओर यहाँ उसकी कारणता को वह वास्तविक मान लेता है । इस प्रकार उसके इस परस्पर विरुद्ध कथन को कौन विवेकी यथार्थ मानेगा, इसका उसे स्वयं विचार करना चाहिये ।
यद्यपि समीक्षक यहाँ यह कह सकता है कि पहले हम ( स. पू. ४ में) निमित्त में जो यथार्थ कारणता लिख आये हैं, वह निमित्त उपादान के कार्यरूप नहीं "परिणमता", इस आधार पर नहीं । सो उसका ऐसा लिखना या कहना इसलिये श्रागमविरुद्ध है, क्योंकि एक स्वर से आगम यही स्वीकार करता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने आप ही कार्यरूप परिणमता है । जैसा कि आगम में कहा है -
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्यपुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्ते पुद्गलाः कर्मभावेन ||१२|| ( पुरुषार्थसिद्ध युपाय ) इसकी व्याख्या करते हुए पंडित प्रवर टोडरमलजी लिखते हैं -
" जब जीव राग-द्वेष- मोहभाव से परिगमन करता है, तब उन भावों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मरूप अवस्था को धारण करता है ।"
इसलिये यही निश्चय करना चाहिये कि उपादान कर्त्ता होकर अपने कार्य को स्वयं ( अपने आप या परनिरपेक्ष होकर ) उत्पन्न करता है, किन्तु कालप्रत्यासत्तिवश अन्य वस्तु में निमित्त व्यवहार होकर असद्भुत व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि इसको निमित्तकर यह कार्य हुआ । ( स. पू. १३५ )
(४) समीक्षक द्वारा की गई व्याख्या से मालूम पड़ता है कि वह वाह्य निमित्त के प्रेरक और उदासीन ये दो भेद परमार्थ से मान लेता है और इस आधार पर वह यह भी मान लेता है कि प्रेरक निमित्तों के वलपर कार्य, कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय युक्त द्रव्य के होनेपर न होकर प्रेरक निमित्तों के बलपर उपादान में आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है और इसके लिये वह उपादान को अनेक योग्यतावाला भी मान लेता है । और इस आधार पर वह यह भी मान लेता है कि उपादान में कार्य होकर भी उपादान की उन अनेक योग्यताओं में से जिस योग्यता के अनुकूल निमित्त होते हैं उस रूप उस उपादान में परिणाम की उत्पत्ति निमित्तों के बलपर होती है । उसके मन से इसे ही यदि उपादान के परमुखापेक्षी होने के आधार पर प्रेरक निमित्तों का बोलबाला कहा जाय तो कोई प्रत्युक्ति नहीं है, परन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । इस सम्बन्ध में विशेष खुलासा हम पहले ही कर आये हैं । फिर भी यहाँ प्रयोजन के अनुसार लिखते हैं।