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आगे समीक्षक ने अपने उक्त कथन के समर्थन में यह लिखा है कि - "इस तरह यही मानना युक्तिसंगत है कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं, तब उपादान में कार्योत्पत्ति उसकी अपनी योग्यता के आधार पर उन निमित्तों के सहयोग के अनुसार ही होती है" सो उसका ऐसा लिखना निश्चयनय के पक्ष का अपलाप करना ही कहा जायगा, क्योंकि परमार्थ से उपादान कर्ता होकर स्वयं कार्यरूप परिणमता है और कालप्रत्यासत्तिवश उक्त कार्य की अविनाभावी बाह्य वस्तु उक्त कार्य की परमार्थ कारण न होकर भी निमित्त कही जाती है । तथा इसके सहयोग से यह कार्य हुप्रा ऐमा प्रयोजनवश असद्भूत व्यवहार कर लिया जाता है। इसप्रकार परमार्थ और असद्भूत व्यवहार की विवक्षित कार्य के प्रति युति कैसे बनती है यह स्पष्ट हो जाता है। यहाँ इतना स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि उपादान कारण कार्योत्पत्ति के लिये केवल आधार ही नहीं है, वह स्वयं कर्ता होकर कार्यरूप परिणमता भी है। यदि कार्योत्पत्ति के समय छह कारकरूप उसे स्वीकार किया जाय तो ऐसा स्वीकार करना परमार्थ ही होगा। उसमें असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त का कथन तो प्रयोजनवश ही किया जाता है, जो मोक्षमार्ग में गौण है। मात्र संसारमार्ग में अज्ञानीजन ही उसके वोलवाले को स्वीकार करते हैं। मोक्षमार्ग में जो उसकी प्ररूपणा है, वह मात्र प्रयोजनवश ही की गई है ।(स.प्र. १३४)
उपादान स्वयं कर्ता होकर कार्यरूप परिणमता है । कालप्रत्यासत्तिवश वाद्यवस्तु उसमें निमित्त होती है। यहां यदि सभीक्षक निमित्त की कार्यकारिता असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा हृदय से स्वीकार कर लेता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं, पर उसका ऐसा स्वीकार करना कि बाह्य निमित्त उपादान के कार्य की उत्पत्ति में भूतार्थ रूप से सहायक है, प्रागमविरुद्ध तो है ही, पर्यायान्तर से जैनदर्शन में कर्तारूप में ईश्वरवाद को घुसेड़ना ही कहा जायगा। (स. पृ. १३४)
। भागे शंकाकार समीक्षक ने १, २ प्रादि संख्या देकर जो कुछ लिखा है, सो उनके संक्षेप में आगम क्या है - इसे यहाँ स्पष्ट किया जाता है । यथा -
(१) समर्थ उपादानकर्ता स्वयं अर्थात् अपने आप ही पर की अपेक्षा किये विना कार्यरूप परिणमता है - यह परमार्थ है, क्योंकि अपेक्षा विकल्प में होती है, उसे छोड़कर अपेक्षा वस्तु में नहीं होती। और परमार्थ परनिरपेक्ष होता है - ऐसा अागमवचन है - "स्वाधितो निश्चयनयः।" व्यवहार से पराश्रित कथन अवश्य किया जाता है, परन्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप वस्तु पराश्रित नहीं होती । अज्ञात और ज्ञात दोनों अवस्थाओं में वह स्वाश्रित ही रहती है। मान्यता में पराश्रित मानना दूसरी वात है । उस आधार पर वस्तु को ही पराश्रित मानना कल्पना के सिवाय और क्या कहा जा सकता है।
(२) असद्भूत व्यवहारनय से यह तो कहा जाता है कि इसकी सहायता से यह कार्य हुआ, पर बाह्य निमित्त का सहायक होना भूतार्थ है, यह जो समीक्षक का मानना है, यही आपत्तियोग्य है। एक भोर निमित्त को समीक्षक असत् कारण कहता है और दूसरी ओर उसकी सहायता को भूतार्थ भी मानता है। सो उसके ऐसे अनर्गल कथन को आगम सम्मत कैसे कहा जा सकता है ? अर्थात् नहीं कहा जा सकता है।