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मन मुठा " है। और इसीतरह व्यवहारनय के जो भेद आगम में उपलब्ध होते हैं, उनके विपय में भी अपनी मनगढंत कल्पना करके उनसे अपने मत की पुष्टि करना चाहता है ।।
उसने जो शुद्ध निश्चयनय से "अनादि, अनिधन, स्वाश्रित अखण्ड शुद्ध पारिणामिक भावरूप तत्त्व ही वास्तविक है" लिखा है, सो उसका और सब लिखना तो ठीक है, पर एक तो उसे "स्वाधित" लिखना प्रयोजन विशेप से है, क्योंकि जो पर्याय स्वाश्रित होती है, उसका अभेद करके वस्तु को ही शुद्ध निश्चयनय से स्वीकार किया जाता है। अतः निश्चयनय केवल पारिणामिक भाव को शब्दों में व्यक्त किया जाय तो वह स्वतः सिद्ध, अनादि-अनन्त, अखण्ड और एकरूप ही कहा जायगा, यह आगम परंपरा है ।
समयसार में जितना भी कथन है वह सब नयदृष्टि से ही किया गया है, क्योकि प्रमाण ज्ञायक होता है और नय, विवक्षित दृष्टि से ज्ञान कराने के साथ कथंचित् प्रापक भी होता है । अतः वाह्य निमित्त के सम्बन्ध में इस आधार पर भूतार्थता का कथन करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारले के समान ही प्रतीत होता हैं। हम वारवार लिख आये हैं कि उपादान की कार्योत्पत्ति में जो बाह्यवस्तु की निमित्तता स्वीकार की गई है, वह यह कार्य किसका काम है - इसकी सिद्धि का निमित्त होने से कालप्रत्यासत्तिवश ही स्वीकार की गई है। उसमें निमित्तता स्वीकार करने का और कोई दूसरा कारण नहीं है। समीक्षक उपादान की कार्योत्पत्ति में निमित्त का भले ही वोलवाला मानता रहे, परन्तु पागम में उसे कालप्रत्यासत्तिवश ही स्वीकार किया गया है। वैसे कार्य में उसका वोलवाला तो है, पर यह कार्य किस उपादान का है, इसकी प्रसिद्धि करने में ही बोलवाला है । (स. पृ. १३३)
__यहाँ समीक्षक ने स्वकल्पित उपादान का लक्षण देने के साथ आगम सम्मत उपादान का लक्षण लिखकर अपने पक्ष के समर्थन में लिखा है कि "परन्तु उसका (हमारा) यह कहना इसलिये निरर्थक है कि पूर्व में प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि आगम प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि "उपादान की वह कार्याव्यवहित पूर्व पर्याय निमित्त का सहयोग मिलने पर ही होती है, उसके अभाव में नहीं । इसतरह कार्योत्पत्ति में कार्याव्यवहित पूर्व पर्याय का बोलबाला सिद्ध न होकर निमित्त का ही वोलबाला स्पष्ट सिद्ध होता है।" सो इस सम्बन्ध में पहिले तो हम उस प्रमाण को दे देना चाहते हैं जिस द्वारा समीक्षक अपने मन का समर्थन कर रहा है । वह प्रमाण इसप्रकार है -
पर्यायशक्तिसमन्विता हि द्रव्यशक्तिः कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैव कार्यकारित्वप्रतीतेः । तत्पपरिणतिश्चसहकारिकारणापेक्षयैव इति, पर्यायशक्तेस्तदेव भावान्न सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः सहकारिकारणापेक्षावैयर्थ्यच ।
पर्याय शक्ति से समन्वित ही द्रव्यशक्ति कार्यकारिणी होती है, क्योंकि विशिष्ट पर्याय से परिणत ही द्रव्य में कार्यकारीपने को प्रतीति होती है और पर्यायशक्ति समन्वित द्रव्यशक्ति की कार्यरूप परिणति सहकारी कारणं सापेक्ष ही होती है, क्योंकि पर्यायशक्ति उसीसमय होती है, इसलिये सर्वथा कार्योत्पत्ति का प्रसंग नहीं आता और न ही सहकारी कारण की अपेक्षा की व्ययंता सिद्ध होती है।