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के अनुकूल निमित्त का योग मिलता है, तब ही उपादान की वह विवक्षित कार्यरूप परिणति होती है और न मिलने पर नहीं होती। इस तरह इस व्यवस्था के अनुसार निमित्त उपादान की कार्यरूप परिणति में सहायक होने रूप से कार्यकारी सिद्ध होता है।" यह समीक्षक के पूरे वक्तव्य का सार है, किन्तु यहाँ इस वक्तव्य में समीक्षक ने कालप्रत्यासत्ति और समर्थ उपादान को भुलाकर ही अपनी उक्त मान्यता बनायी है । वह यह भूल जाता है कि उपादान के कार्य और वाह्य निमित्त - इन दोनों में आगम ने कालप्रत्यासत्ति स्वीकार की है। उसके आधार पर निश्चय से यह व्याप्ति बनती है कि प्रत्येक समय में जैसा-जैसा उपादान अपने विवक्षित कार्य के सन्मुख होता है, प्रत्येक समय में वैसावैसा उसके अनुकूल बाह्य निमित्त का योग बनता ही है । इसी को असद्भूत व्यवहारनय से ऐसा भी कह सकते हैं कि प्रत्येक समय में असद्भूत व्यवहारनय से जैसा-जैसा अनुकूल वाह्य निमित्त का योग मिलता है, वैसा-वैसा उपादान अपने विवक्षित कार्य को करता है। कार्यकारणभाव में यह निश्चयव्यवहार की युति है समीक्षक इसी युति का निषेध करके अपनी मान्यता की पुष्टि कर रहा है। वह यहां यह भूल जाता है कि इससे सर्वज्ञ प्रणीत आगम का घोर अपलाप हो रहा है । पर उसे तो यह धुन लगी है कि यदि आगम का घोर अपलाप होता है तो होमो, हमें तो अनियतवाद की पुष्टि करनी है।
आगे समीक्षक ने लिखा है कि "यदि निमित्त को वास्तविक कारण न मानकर केवल कल्पनारोपित कारण माना जावे तो जीव की मोक्ष की व्यवस्था भंग हो जायगी, क्योंकि संसार और मोक्ष की व्यवस्था व्यवहाररूप होने से उत्तरपक्ष की दृष्टि में अवास्तविक ही सिद्ध होती है । यदि कहा जाय कि संसार और मोक्षरूप परिणमन जीव के ही परिणमन हैं, इसलिये वास्तविक है तो भी शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय से ही उसके व्यवहृत होते हैं, क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से अनादि, अनिधन, स्वाश्रित, और अखण्ड शुद्ध (पर संयोग रहित) .पारिणामिक भावरूप तत्त्व ही वास्तविक है अतः जीव की संसार और मोक्षरूप परिणतियाँ व्यवहारनय से सिद्ध होती हैं। इसतरह वे व्यवहाररूप होने पर भी, कल्पनारोपित होकर अवास्तविक नही हैं । अतः निमित्त कारणता व्यवहाररूप होते हुए भी उपादान की कार्यरूप परिणति में सहायक होने के रूप में वास्तविक मानना ही युक्तिसंगत है, कल्पनारोपित मानना युक्तिसंगत नहीं है आदि ।".
यह प्रकृत में समीक्षक का वक्तव्य है। वह समयसार का स्वाध्याय करने के बाद उसका किस रूप में अर्थ ग्रहण करता है और सामने बैठे जिज्ञासु वन्धुनों को उसका आशय किसरूप में समझाता है, उक्त कथन से उसका पता लग जाता है। न तो संसार पर्याय ही जीव से सर्वथा . भिन्न है और न मोक्ष पर्याय ही जीव से सर्वथा भिन्न है। जीव ही स्वयं संसार रूप होता है और जीव ही स्वयं मोक्षरूप होता है । समयसार में जीव को जो स्वतः सिद्ध अनादि अनन्त विशदज्योति
और उद्योतरूप एक ज्ञायक कहा गया है, वह केवल द्रव्याथिकनय से ध्यान के विपयभूत ध्येय को सामने रखने के अभिप्राय से या परभाव से भिन्न मूल प्रात्मा को लक्ष्य में लेने के अभिप्राय से ही कहा गया है और वहाँ जो जीवादि पर्यायरूप नौ पदार्थों को गौण कराया गया है, वह केवल वर्तमान पर्याय में आसक्ति छुड़ाने के अभिप्राय से ही कराया गया है । यह वस्तुस्थिति है ।
समीक्षक 'इसका विपर्यास करके ही अपने अभिप्राय को पुष्ट करना चाहता है, यह दुर्भाग्य का विषय है । मालूम पड़ता है कि शुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं, इसे उसने ख्याल में लिया ही नहीं