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असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त कही जाती है। फिर भी समीक्षक यह तो मानता है कि कार्यद्रव्य में बाह्य निमित्त का सद्भाव तो नहीं पाया जाता, इसलिए कार्यद्रव्य का वह अंश तो नहीं माना जा सकता है, परन्तु वह व्यवहार का अर्थ सद्भुत व्यवहार करके उसे वास्तविक सहायक कहता है, उसका यही कहना मिथ्या है, क्योंकि सद्भूत व्यवहार एक द्रव्य में गुणगुणी आदि की अपेक्षा भेद व्यवहार करने पर ही होता है । दो द्रव्यों में किसी अपेक्षा सद्भूत व्यवहार की कल्पना, यह समीक्षक के मस्तिष्क की ही उपज है। . .
कथन नं. ३७ का समाधान-समीक्षक ने खा. त. च. पृ. १६ "जो परिणमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है, वह कर्ता है। कर्ता का यह लक्षण. उपादान उपादेय -भाव को लक्ष्य में रखकर ही माना गया है" इत्यादि लिखकर हमारे कथन का निरसन करते हुए समीक्षक ने जो निमित्त कारण के लक्षण के समर्थन में उद्धरण उपस्थित किये हैं, वे वस्तुतः निमित्त कारण के लक्षण की पुष्टि करने में असमर्थ हैं, क्योंकि तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक का जो उद्धरण समीक्षक ने दिया है, वह वस्तुत: उपादान के लक्षण का ही समर्थन करता है, क्योंकि कारण-कार्य भाव में क्रमभाव का नियम सर्वत्र उपादान-उपादेय भाव में ही घटित होता है, निमित्त-नैमित्तिकभाव में नहीं । निमित्त-नैमित्तिकभाव की अपेक्षा कार्यकाल में ही कालप्रत्यासत्तिवश अन्य द्रव्य में निमित्तता स्वीकार की गई है, दोनों में समयभेद नहीं है। उदाहरणार्थ जिस समय क्रोध कपाय कर्म का उदय होता है, उसी समय जीव के क्रोध कषायरूप परिणाम होता है। इसीप्रकार जिस समय जीव के क्रोध कषायरूप परिणाम होता है, उसीसमय ज्ञानावरणादि कर्मों का पासवपूर्वक बन्ध होता है।
(१) यदि कहा जाय कि श्लोकवार्तिक पृ. १५१ में सहकारी-कारण का “यदनंतर"इत्यादि लक्षण क्यों किया गया है ? सो उसका समाधान यह है कि इससे पूर्व उपादान-उपादेय भाव की लक्षणपरक ज्यवस्था की गई है। इसके बाद यह प्रश्न किया गया है कि सहकारी कारण के साथ कार्य की यह व्यवस्था कैसे बनेगी ? क्योंकि उनमें एक द्रव्यप्रत्यासत्ति का अभाव है। इसका समाधान करते हुए यह कहा गया है कि उन दोनों में कालप्रत्यासंत्ति पायी जाती है, इसलिए उनमें कार्यकारणभाव वन जावेगा। उसके बाद “यदनंतर" इत्यादि वचन द्वारा सहकारी कारण का लक्षण दिया गया है। सो मुख्य दृष्टि से देखने पर यह लक्षण उपादान-उपादेयभाव में ही घटित होता है, क्योंकि सहकारी कारण का अर्थ उपादान कारण भी होता है। गौणरूप से यहां इस लक्षरण द्वारा निमित्तनैमित्तिक भाव का परिग्रह कर लिया गया है।
(२) समीक्षक ने दूसरा उदाहरण अप्टसहस्री पृ १०५ का-"तद्सामर्थ्यमखण्डयद्" इत्यादि रूप से दिया है। सो इस विपय में हम यह अनेक बार लिख पाये हैं कि भट्टाकलंकदेव ने यह वचन ऐसे मीमांसकों के लिए कहा है जो शब्द को सर्वथा नित्य मानते हैं। उनके मत में शब्द सर्वथा नित्य होने से (उनके मतानुसार) उसमें विकृति नहीं आती, फिर भी तालु आदि को निमित्त कर ध्वनि सुनाई देती है - यह एक ऐसी बात है जो तर्कसंगत नहीं है। इसी बात को ध्यान में 1. परीक्षामुख सूत्र अ. 3 सूः 14 (प्रमेयरत्नमाला)