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इतना अवश्य है कि बालक को सिंह कहना यह 'मुख्याभावे' का इस अपेक्षा से उदाहरण हो सकता है कि वहां बालक के समीप सिंह का सद्भाव उपलब्ध नहीं है। फिर भी यदि कोई कहे कि सिंह के सर्वथा अभाव में बालक को सिंह कहा गया है, सो बात नहीं है । सिंह भी है और बालक भी है । पर दोनों इन्द्रियगम्य क्षेत्र में अवस्थित नहीं हैं। फिर भी वालक में सिंह का उपचार किया गया है। इसी प्रकार अन्य जितने भी उदाहरण यहां समीक्षक ने दिये हैं उन सवको विविध दृष्टिकोणों से घटित कर लेना चाहिये।
यदि समीक्षक बाह्य निमित्त को कार्य के होने में वास्तविक सहायक कहना मानना-छोड़ दे और प्रत्येक वस्तु स्वयं ही अपने परिणाम स्वभाव के कारण परिणमती है अर्थात् परिणमन करती है, यह हृदय से मानले तो इस सम्बन्ध का सारा ही विवाद समाप्त हो जावे। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि समीक्षक वाह्य निमित्त को वास्तविक सहायक मानकर प्रत्येक वस्तु को सर्वथा पराधीन ही बना देना चाहता है, जब कि प्रत्येक वस्तु के कार्य में बाह्य निमित्त को असद्भूत व्यवहारनय से ही स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ यह है कि वाह्य निमित्त न तो किसी अन्य वस्तु के कार्य का निर्माण ही करता है और न उसके निर्माण में परमार्थ से सहायक ही होता है। प्रत्येक वस्तु को जो "उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक" स्वीकार किया गया है, सो वह इसी आधार पर ही स्वीकार किया गया हैं, क्योंकि जैसे प्रत्येक वस्तु स्वरूप से ध्रौव्य है उसी प्रकार वह स्वरूप से उत्पाद और व्ययरूप भी है। इसको विशेष रूप से समझने के लिए आप्तमीमांसा श्लोक १०५ और उसकी टीका अष्टशती और अष्टसहस्री का अध्ययन कर लेना जरूरी है। वहां स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु स्वरूप से स्वयं है। एक दूसरे की सिद्धि के लिये परस्पर की अपेक्षा अवश्य लगती है, परन्तु चाहे कर्ता हो या कर्म, ये स्वरूप से स्वयं हुआ करते हैं। अपेक्षा का कथन व्यवहार अर्थात उपचार से किया जाता है और स्वरूप स्वयं ही हुप्रा करता है, यह इसका तात्पर्य है।
कथन नं. ३५ का समाधान :-समीक्षक ने “जो परिणमन होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है" यह अर्थ “यः परिणमति" का जगह-जगह किया है। इस पर हमने संशोधन सुझाया था कि "यः परिणमति" का वास्तविक अर्थ होता है, "जो परिणमता है या परिणमन करता है; किन्तु दुःख है कि समीक्षक अपने पक्ष के समर्थन में ही लीपापोती करके उक्त वास्तविक अर्थ को स्वीकार नहीं कर रहा है। वह भले ही इसे सामान्य अशुद्धि कहे, और वात का बवण्डर बताये पर यह सामान्य अशुद्धि नहीं है। उसे तो अपना इष्ट प्रयोजन अर्थात् बाह्य निमित्त को वास्तविक सहायक बताना है, इसीलिये बुद्धिपूर्वक उसके द्वारा यह अर्थ किया गया जानना चाहिये । इस समीक्षा में भी इस प्रवृत्ति को वह नहीं छोड़ रहा है। इसका हमें खेद है।
कथन ३६ का समाधान :- हमने जो खा. त. च. पृ. ५४ में बाह्य निमित्त को असद्भूत व्यवहारनय का विषय बतलाया है, सो उसका कारण यह है कि वाह्य निमित्त कार्यद्रव्य का अंश तो नहीं ही होता, इसलिए तो वह कार्यद्रव्य में असद्भूत है, परन्तु कालप्रत्यासत्तिवश उसे कार्यद्रव्य का निमित्त कहा जाता है, यह व्यवहार है अर्थात् उपचार है। इसप्रकार बाह्य वस्तु कार्यद्रव्य की