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विषय प्रवेश इसकी सिद्धि करनेके लिए हो किया गया है, इसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। विशेष खुलासा हम आगे के प्रकरणों में करनेवाले हैं ही।
इस प्रकार एक द्रव्यकी विवक्षित पर्याय दूसरे द्रव्यको विवक्षित पर्यायका कर्ता आदि है या उसे परिणमाता है या उसमें अतिशय उत्पन्न करता है यह कथन परमार्थभूत न होकर उपचरित कैसे है इसकी संक्षेपमें मीमांसा की। साथ ही परमागममें जो इस प्रकारका कथन उपलब्ध होता है वह भी परमार्थभूत अर्थकी प्रसिद्धि करनेरूप प्रयोजनको ध्यानमें रखकर ही किया गया है इसका भी प्रसंगसे विचार किया।
'व्यवहार धर्म साधन और निश्चय धर्म साध्य' इसको भी उक्त प्रकारसे व्यवहार कथन जानना चाहिए, क्योंकि परमागममें जहाँ भी इसे साधनरूपसे स्वीकार किया गया है वहाँ बाहय व्याप्तिवश व्यवहार धर्मको साधन कहा गया है, क्योंकि अहिंसा, सत्य आदि व्यवहाररूप प्रवृत्ति करने मात्रसे यदि परमार्थ धर्मकी उत्पत्ति होना मान लिया जाय तो आगममें जो द्रव्यलिंगका कथन दृष्टिगोचर होता है वह नहीं बन सकता। यतः आगममे द्रव्यलिंग और भावलिंगके भेदसे जो दो प्रकारके लिंग बतलाये हैं वे तभी बन सकते हैं जब अहिंसा, सत्य आदि व्यवहाररूप मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति करते-करते निश्चयधर्मकी प्राप्ति हो जाती है अपनी इस अज्ञानमूलक मान्यताका परित्याग कर दिया जाय। इससे सिद्ध है कि आगममें जहाँ भी परमार्थ धर्मकी प्रसिदिका व्यवहार हेत जानकर व्यवहारधर्ममें साधनपनेका व्यवहार किया गया है. इसके लिये १५२ से १५६ तककी गाथाओं पर तथा समयसारकलश १०५ से लेकर ११० तकके कलशोंपर दृष्टिपात्र कीजिये । ___अब 'शरीर मेरा, धन-स्त्री-पुत्रादि मेरे, देश मेरा इत्यादि रूपसे जितना भी व्यवहार होता है वह उपचरित कैसे है इसका विचार करते हैं। यह तो आगम, गुरु उपदेश, युक्ति और स्वानुभवप्रत्यक्षसे ही सिद्ध है कि स्वतःसिद्ध, अनादि-अनन्त, विशदज्योति, सदा प्रकाशमान 'अहम् पद वाच्य' ज्ञायकस्वरूप यह आत्मा नामक पदार्थ स्वतन्त्र द्रव्य है और धन, शरीर, स्त्री-पुत्रादि पदार्थ स्वतन्त्र द्रव्य है, फिर भी इन धन आदि पदार्थोको विशेषण बनाकर किसीको धनवाला आदि कहना उसे भी पूर्वोक्त उपचरित कथनके समान उपचरित ही जानना चाहिए। इस प्रकार शरीर मेरा, धन मेरा, स्त्री-पुत्रादि मेरे, देश मेरा इत्यादि रूपसे जितना भी कथन उपलब्ध होता है वह भी उपचरित क्यों है इसकी संक्षेपमें मीमांसा की।
(१) समय कलश २४३ ।