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जैनतत्त्वमीमांसा
६. नवप्ररूपमा ___ अब प्रसंगसे उपचरित कथनपर विस्तृत प्रकाश डालनेके लिए नैगमादि कतिपय नयोंका विषय किस प्रकार उपचरित है इसकी संक्षेपमें मीमांसा करते हैं-यह तो सुविदित सत्य है कि आगममें नैगमादि नयोंकी परिगणना सम्यक नयोंमें की गयी है, इसलिये शंका होती है कि जो इनका विषय है वह परमार्थभूत है, इसलिए इनकी परिगणना सम्यक् नयोंमें की गई है या इसका कोई अन्य कारण है। समाधान यह है कि |जो इनका विषय है उसे दृष्टिमें रखकर ये सम्यक नय नहीं कहे गये हैं, किन्तु इन द्वारा भूतार्थकी प्रसिद्धि होती है, इसीलिए ये सम्यक् नय कहे गये हैं। ___ इन नयोंमें प्रथम नैगमनय है। यह संकल्पप्रधान नय है । इसके भावी वर्तमान और अतीत नैगम ऐसे तीन भेद हैं । जो अनिष्पन्न अर्थको निष्पन्न के समान कहता है वह भावी नेगम है। जैसे प्रस्थ बनानेके लिए लायी गयो लकड़ीको प्रस्थ कहना । यहाँ संकल्प द्वारा लकड़ीमें प्रस्थका उपचार किया गया है। वर्तमानमें प्रारम्भ की गयी क्रियाको देखकर उसे निष्पन्न कहना यह वर्तमान नैगम है। जैसे पकते हुये चावलको देखकर चावल पक गया कहना । यहाँ सकल्प द्वारा पकते हुए चावलमें 'चावल पक गया' ऐसा उपचार किया गया है। जो कार्य हो चुका उसका वर्तमानमें आरोप कर कथन करना यह भूत नैगमनय है। जैसे आज भगवान् महावीरका निर्वाण दिन है यह कहना । यहाँ अतीत कालका वर्तमान कालमें संकल्प द्वारा उपचार किया गया है । इसी प्रकार नैगमनयके अन्य जितने भी भेद किये जाते हैं वे सब उपचार द्वारा ही अर्थको विषय करते है, इसलिए नैगमनयका विषय उपचरित होनेसे इसकी परिगणना उपचरित नयोंमें ही होती है। ____ संग्रहनयके दो भेद है-पर संग्रह और अपर सग्रह । उनमेसे सर्वप्रथम पर संग्रहके विषय महासत्ताकी दृष्टिसे विचार कीजिए। यह तो प्रत्येक आगमाभ्यासी जानता है कि जैनदर्शनमे स्वचतुष्टयरूप स्वरूपसत्ताके सिवाय ऐसी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है जो सब द्रव्यों और उनके गुणपर्यायोंमें व्याप्त होकर तात्त्विकी एकता स्थापित करती हो। फिर भी
अभिप्राय विशेषवश अर्थात् लोकमे जितने भी द्रव्य, गुण और पर्याय हैं | वे सब पृथक-पृथक होकर भी स्वरूपसे सत् है इस लक्ष्यको स्पष्ट करनेके लिए जैनदर्शनमें सादृश्य सामान्यरूप महासत्ताको कल्पित किया गया है।
(१) तत्वार्थ श्लो० अ०१, सू० ३३ टोका ।