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निश्चय-व्यवहारमीमांसा
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क्यों हेय है। आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षमार्गमें उपादेयरूपसे व्यवहारनयका आश्रय करनेवाले जीवको पर्यायमूढ़ कहते हैं उसका कारण भी यहीं है । वे प्रवचनसारमें अपने इस भावको व्यक्त करते हुए कहते हैं
त्यो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पमाणि भणिदाणि । तेहि पुण पञ्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥९३॥
प्रत्येक पदार्थ द्रव्यस्वरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं और उन दोनोसे पर्याय होती हैं । जो पर्यायोंमें मूढ़ है वे पर समय हैं ||१३||
प्रवचनसारकी उक्त गाथा द्वारा यह ज्ञान कराया गया है कि वस्तु स्वरूपका निर्णय करते समय जिस प्रकार अभेदग्राही द्रव्यार्थिक (निश्चय) नय उपयोगी है उसी प्रकार भेदग्राही ( पर्यायार्थिक ) नय भी उपयोगी, है इसमें सन्देह नहीं । किन्तु यह ससारी जीव अनादिकालसे अपने निश्चयरूप आत्मस्वरूपको भूलकर मात्र पर्यायमूढ़ हो रहा है, अर्थात् पर्यायको ही अपना स्वरूप समझ रहा है । एक तो अज्ञानवश वह अपने स्वरूपको जानता ही नहीं, जब जो मनुष्यादि पर्याय मिलती है उसे ही आत्मा मानकर यह उसीकी रक्षामें प्रयत्नशील रहता है । यदि उसकी हानि होती है तो यह अपनी हानि मानता है और उसकी प्राप्तिमे अपना लाभ मानता है । यदा कदाचित् उसे आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान कराया भी जाता है तो भी यह अपनी पुरानी टेकको छोड़ने में समर्थ नहीं होता । फलस्वरूप यह जीव अनादिकालसे पर्यायमूढ बना हुआ है और जब तक पर्यायमूढ़ बना रहेगा तब तक उसके संसारकी ही वृद्धि होती रहेगी । इसलिए इस जीवको उन पर्यायोंमें अभेदरूप अनादि- अनन्त एक भाव जो चेतना द्रव्य है उसे ग्रहण करके और उसे निश्चयनयका विषय कह कर जीव द्रव्यका ज्ञान कराया गया है और पर्यायाश्रित भेदनको गौण कराया गया है। साथ ही अभेद दृष्टिमे वे भेद अनुभवमें नहीं आते, इसलिये अभेददृष्टिकी दृढ़ श्रद्धा करानेके लिए कहा गया है कि जो पर्यायनय है सो व्यवहार है, अभूतार्थ है और असत्यार्थ है । वह मोक्षमार्ग में अनुसरण करने योग्य नहीं है, अर्थात् मोक्ष मार्गमे लक्ष्यरूप से स्वीकार करने योग्य नही है ।
इसी प्रकार बाह्य निमित्तादिकी अपेक्षा जो व्यवहार की प्रवृत्ति होती है वह भी उपचरित होनेसे मोक्षमार्गमे अनुसरण करने योग्य नहीं है । यद्यपि यह तो हम 'मानते हैं कि बाह्य निमित्तादिकी अपेक्षा लोकमें जो व्यवहार होता है वह उपचरित होने पर भी इष्टार्थका बोध कराने में