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जैनतत्वमीमांसा करनेवाला जो असद्भत व्यवहारनय बतलाया गया है सो सम्यग्दष्टिके वह लौकिक व्यवहारको स्वीकार करनेवाले ज्ञानकी मुख्यतासे बतलाया गया है, अध्यात्मदृष्टिको मुख्यकर नहीं। बात यह है कि लोकमें 'यह शरीर मेरा, यह धन या अन्य पदार्थ मेरा' ऐसा अज्ञानमूलक बहुजनसम्मत व्यवहार होता है और सम्यग्दृष्टि भी इसे जानता है। यद्यपि यह व्यवहार मिथ्या है, क्योंकि जिन शरीरादिकके आश्रयसे लोकमें यह व्यवहार प्रवृत्त होता है उनका आत्मामें अत्यन्ताभाव है। फिर भी सम्यग्दृष्टिके ज्ञानमे लोकमें ऐसा व्यवहार होता है इसकी स्वीकृति है । अतः इसी बातको ध्यानमें रखकर अन्यत्र 'शरीर मेरा, धन मेरा' इस व्यवहारको स्वीकार करनेवाले नयको असद्भूत व्यवहारनय कहा गया है। लोकमे इसी प्रकारके और भी बहतसे व्यवहार प्रचलित हैं। जैसे पर द्रव्यके आश्रयसे कर्ता-कर्मब्यवहार, भोक्ताभोग्यव्यवहार, और आधार-आधेव्यवहार आदि सो इन सब व्यवहारोंके विषयमें भी इसी दृष्टिकोणसे विचारकर लेना चाहिए। अध्यात्मष्टिसे यदि विचार किया जाता है तो न तो 'आत्मा कर्ता है और अन्य पदार्थ उसका कर्म है' यह व्यवहार बनता है, न 'मात्मा भोक्ता है और अन्य पदार्थ भोग्य है' यह व्यवहार बनता है, तथा न 'घटादि पदार्थ आधार है और जलादि पदार्थ आधेय हैं' यह व्यवहार बनता है, क्योकि एक पदार्थका दूसरे पदार्थमें अत्यन्ताभाव होनेसे निश्चयसे सब पदार्थ स्वतन्त्र है, कर्ता-कर्म आदिरूप जो भी व्यवहार होता है वह अपनेमे ही होता हैं। दो द्रव्योंक आश्रयसे इस प्रकारका व्यवहार त्रिकालमे नहीं हो सकता, इसलिये वह अपनी श्रद्धामे इन सब व्यवहारोंको परमार्थरूपसे स्वीकार नहीं करता। परन्तु निमित्तादिकी दृष्टिसे ये व्यवहार होते है ऐसा वह जानता है इतना अवश्य है, अतः अध्यात्ममें इन सब व्यवहारोंका किसी नयमे अन्तर्भाव न होकर भी ज्ञानको अपेक्षा इनका असद्भुत व्यवहारनयमें अन्तर्भाव हो जाता है। पंचाध्यायोमें इन व्यवहारोंको स्वीकार करनेवाले नयको नयाभास बतलानेका और अन्यत्र इन्हें नयरूपसे स्वीकार करनेका यही कारण है। २२ उपसंहार
इसप्रकार मोक्षमार्गकी दृष्टिसे निश्चयनय और व्यवहारनयका स्वरूप क्या है इसका विचार किया। इससे ही हमे यह ज्ञान होता है कि जीवन संशोधनमें निश्चयनय क्यों तो उपादेय है और व्यवहारनय