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निश्चय-व्यवहारमीमांसा उन्हें आत्माका मानना तो अध्यात्ममूलक जाननयको अपेक्षा असद्भूत व्यवहारनयका विषय हो सकता है। किन्तु इस दृष्टिसे शरीर मेरा और 'धन मेरा' ये उदाहरण असद्भूत व्यवहारमयके विषय नहीं हो सकते। पंचाध्यायीमें इसी तथ्यका विवेक कर रागादिको असद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण बतलाया गया है। शरीरादि और धनादि पर पदार्थ हैं, इसलिये वे तो आत्मामें असद्भूत हैं ही । इनके योगसे 'ये मेरे' इत्याकारक जो आत्मविकल्प होता है वह भी जायकस्वभाव और उसकी अनुभूतिमें असद्भूत है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर आचार्य कुन्दकुन्दने ऐसा विकल्प करनेवालेको मूढ़-अज्ञानी कहा है और यह बात ठोक भी है, क्योंकि जो परद्रव्य हैं उनमें इस जीवको यदि आत्मबुद्धि बनी रहती है तो वह ज्ञानी कैसे हो सकता है। इतना अवश्य है कि सम्यग्दृष्टिके शरीरादिपर द्रव्योंमे आत्मबुद्धि तो नहीं होती पर जहाँ तक प्रमाद दशा है वहाँ तक राग अवश्य होता है । उमका निषेध नहीं।
यद्यपि यह राग भी आत्माका स्वभाव नहीं है इसलिए उसे परभाव बतलाया गया है पर होता वह आत्मामें ही है। प्रत्येक सम्यग्दृष्टि इस तथ्यको जानता है। जानता ही नहीं है, ऐसा उसका निर्णय भी रहता है कि यह राग आत्मामे उत्पन्न होकर भी कर्म (और नोकर्म) के सम्पर्क मे ही उत्पन्न होता है, उनके अभावमें उत्पन्न नही होता, अत. यह मेरा स्वभाव न होनेसे पर है अतएव हेय है और ये जो सम्यक्त्वादि स्वभावभूत आत्माके गुण हैं वे आत्माके स्वभाव सन्मुख होनेपर ही उत्पन्न होते हैं, परका आश्रय लेनेसे त्रिकालमें उत्पन्न नहीं होते, अतः मुझे परका आलम्बन छोड़कर मात्र अपने त्रिकाली ज्ञायकस्वभावका ही आलम्बस लेना श्रेयस्कर है। सम्यग्दृष्टिकी ऐसी श्रद्धा होनेके कारण वह आत्मामे रागादि वेभाविक भावोंको स्वीकार तो करता है किन्तु परभावरूपसे ही स्वीकार करता है। इस प्रकार रागादि परभाव हैं फिर भी वे आत्मा कहे गये, इसलिए जो अन्य वस्तुके गुणधर्मको अन्य में आरोपित करता है वह असद्भूत व्यवहारनय है इस लक्षणके अनुसार तो 'रागादि जोवके' इसे असद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण मानना ठोक है पर 'शरीरादि मेरे' और 'धनादि मेरे' ऐसे विशेषण युक्त विकल्पको असद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण मानना ठोक नहीं है।
फिर भी यह चरणानुयोगके अङ्गरूप (अनमारधर्मामृत और तदनुषंगी आलापपद्धति आदिमें) 'शरीर मेरा, धन मेरा' इसे स्वीकार