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जैनतत्त्वमीमांसा और आलापपद्धति आदि ग्रन्थोंमें) अतद्गुण आरोपको असद्भूत व्यवहारनय बत्तला कर 'शरीर मेरा है' इसे स्वीकार करनेवाले विकल्पज्ञानको अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय और 'धन मेरा है' इसे स्वीकार करनेवाले विकल्पज्ञानको उपचरित असद्भुत व्यवहारनय क्यों माना गया है। समाधान यह है कि मिथ्याष्टिके अज्ञानवश और सम्यग्दृष्टिके रागवश शरीर आदि पर द्रव्योंमें ममकाररूप विकल्प होता है इसमें सन्देह नही। पर क्या इस विकल्पके होनेमात्रसे वे अनात्मभूत शरीरादि पदार्थ उसके आत्मभूत हो जाते हैं ? यदि कहा जाय कि रहते तो वे हैं अनात्मभूत ही, वे (शरीरादि पदार्थ) आत्मभूत त्रिकालमें नहीं हो सकते । फिर भी मिथ्यादष्टिकी बात छोड़िए, सम्यग्दृष्टिके भी रागवग 'ये मेरे' इस प्रकारका विकल्प तो होता ही है। इसे मिथ्या कैसे माना जाय ? समाधान यह है कि सम्यग्दृष्टिके लोकव्यवहारको दृष्टिसे रागवश 'ये मेरे' इस प्रकारका विकल्प होता है इसमे सन्देह नहीं। यहाँ सम्यग्दृष्टिके इस प्रकारका विकल्प ही नहीं होता यह बतलानेका प्रयोजन नहीं है। किन्तु यहाँ देखना यह है कि जहाँ सम्यग्दृष्टिके 'ये मेरे' इस विकल्पको ही 'स्व' नही बतलाया है वहाँ गरीरादि पर द्रव्योंको उसका 'स्व' कैसे माना जा सकता है। अर्थात् त्रिकालमें नहीं माना जा सकता। इसी अभिप्रायको ध्यानमे रखकर समयप्राभृतमें कहा भी है
अहमेदं एदमहं अहमेदस्सेव होमि मम एद । अण्ण ज परदग्व सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ॥२०॥ आसि मम पुन्वमेदं एदस्स अह पि आसि पुन्वं हि । होहि द पुणो वि मज्झ एयस्स अहं पि होस्सामि ॥२१॥ एयं तु असम्भूद आदवियप्पं करेदि समूढो ।
भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ॥२२॥ जो पुरुष सचित्त, अचित्त और मिश्ररूप अन्य पर द्रव्योंके आश्रयसे ऐसा अद्भूत ( मिथ्या ) आत्मविकल्प करता है कि मैं इन शरीर (धन और मकान आदि ) रूप हैं, ये मुझ स्वरूप है, मैं इनका हूँ, ये मेरे हैं, ये मेरे पहिले थे, मै इनका पहिले था, ये मेरे भविष्य में होंगे और मै भी इनका भविष्यमें होऊँगा वह मूढ़ है किन्तु जो पुरुष भूतार्थको जान कर ऐसा असद्भूत आत्मविकल्प नहीं करता बह ज्ञानी है ॥२०-२२।।
इसलिए जितने भी रागादि वैभाविक भाव आत्मामें उत्पन्न होते हैं