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निश्चय-व्यवहारमीमांसा कहना यह उपचार है। इसी उपचारको ध्यानमें रखकर उक्त उदाहरणको उपचरित असद्भत व्यवहारनयका विषय माना गया है।
यहाँ पर अन्य द्रव्यके गुणधर्मकी अन्य द्रव्यमें संयोजना करना इसे असत्भूतव्यवहारनय बतलाया है। इस परसे यह शंका होती है कि इस प्रकार तो 'जीव वर्णादिवाला है' इसे स्वीकार करनेवाली दृष्टिको भी असद्भूत व्यवहारनय मानना पड़ेगा, क्योंकि इस उदाहरणमें भी अन्य द्रव्यके गुणधर्मका अन्य द्रव्यमें आरोप किया गया है। परन्तु विचार कर देखने पर यह शंका ठोक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि वास्तवमें नयका लक्षण तो जिस वस्तुके जो गुण-धर्म हैं उन्हें उसीका बतलाना ही हो सकता है। यदि कोई भी नय एक वस्तुके गुणधर्मको अन्य वस्तुका बतलाने लगे तो वह नय ही नही होगा। अतः जीव वर्णादिवाला है ऐसे बिचारको समीचीन नय नहीं माना जा सकता, क्योंकि वर्णादिवाला तो पुद्गल ही होता है, जीव नहीं। जीवमें तो उनका अत्यन्ताभाव ही है । फिर भी प्रकृतमें अन्य द्रव्यमे आरोप करनेको जो असद्भूत व्यवहारनय कहा गया है सो इस कथनका अभिप्राय ही दूसरा है । बात यह है कि रागादिभाव जीवमें उत्पन्न होकर भी नैमित्तिक होते हैं, इसलिए बन्धपर्यायकी दृष्टिसे अतद्गुण मानकर जिस प्रकार उनका जीवमें आरोप करना बन जाता है उस प्रकार पुद्गलसे तादात्म्यको प्राप्त हुए वर्णादि गुणोंका जीवमें आरोप करना त्रिकालमें घटित नहीं होता। यदि व्यवहारका आश्रय लेकर जोवको वर्णादिवाला माना भी जाता है तो उसे स्वीकार करनेवाला नय मिथ्या नय ही होगा। उसे सम्यक नय मानना कथमपि सम्भव नही है, क्योकि वह नय जो पृथक् सत्ताक दो द्रव्योंमें एकत्वबुद्धिका जनक हो सम्यक् नय नहीं हो सकता। जो पदार्थ जिस रूपमें अवस्थित है उसे उसी रूपमें स्वीकार करनेवाला ज्ञान ही प्रमाण माना गया है और नयज्ञान प्रमाणज्ञानका ही भेद है। यदि इन ज्ञानोंमे कोई अन्तर है तो इतना ही कि प्रमाणशान अंशभेद किये बिना पदार्थको समग्रभावसे स्वीकार करता है और नयज्ञान एक-एक अंश द्वारा उसे स्वोकार करता है। अतः प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि जो नयज्ञान विवक्षित पदार्थके गुणधर्मको उसीके बतलाता है वही नयज्ञान सम्यक् कोटिमें आता है, अन्य नयज्ञान नहीं। पंचाध्यायीमें नयका लक्षण तद्गुणसंविज्ञानरूप करनेका यही कारण है। २१ अध्यात्मनयोंकी सार्थकता
यदि कहा जाय कि यदि ऐसी बात है तो अन्यत्र (अनगारधर्मामृत