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जैनसत्त्वमीमांसा सहायक है। जैसे 'धीका घड़ा' कहने पर उसी घड़ेकी प्रतीति होती है जिसमें घी भरा जाता है या 'कुम्हारको बुला लाओ' ऐसा कहने पर उसी मनुष्यकी प्रतीति होती है जो घटकी उत्पत्तिमें निमित्त होता है, परन्तु इस व्यवहारको मोक्षमार्गमें उपादेयरूपसे स्वीकार करने पर स्वावलम्बिनी वृत्तिका अन्त होकर मात्र परावलम्बिनी वृत्तिको ही प्रश्रय मिलता है, अतएव अभूतार्थ (असत्यार्थ) होनेसे यह व्यवहार भी अनुसरणीय नहीं माना गया है।
यहां पर ऐसा समझना चाहिए कि जिसने अभेददृष्टिका आश्रय कर पर्यायदृष्टि और उपचारदृष्टिको हेय समझ लिया है वह अपनो श्रद्धामें तो ऐसा ही मानता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्ता आदि त्रिकालमें नहीं हो सकता । जो मेरी संसार पर्याय हो रही है उसका कर्ता एकमात्र मै हं और मोक्ष पर्यायको मैं ही अपने पुरुषार्थसे प्रगट करूँगा। इसमे अन्य पदार्थ अकिंचित्कर है। फिर भी जब तक उसके विकल्पज्ञानको प्रवृत्ति होती रहती है तब तक उसे भूमिकामे स्थित रहनेके लिए अन्य सुदेव, सुगुरु और आप्तोपदिष्ट आगम आदि हस्तावलम्ब (बाह्यनिमित्त) होते रहते हैं। तभी तो उसके मुखसे ऐसी वाणी प्रगट होती है
मुझ कारज के कारण सु आप। शिव करहु हरहु मम मोहताप । फिर भी वह इस प्रकारको प्रवृत्तिको उपादेय नही मानता, क्योकि बाह्य आचाररूप प्रवृत्ति होना अन्य बात है और शुभाचारको आत्मकार्य या मोक्षमार्ग मानना अन्य बात है। सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्ग तो स्वभावदृष्टिकी प्राप्ति और उसमें स्थितिको हो समझता है। यदि उसकी यह दृष्टि न रहे तो वह सम्यग्दृष्ठि ही नहीं हो सकता। यही कारण है कि मोक्षमार्गमे व्यवहारदृष्टि आश्रय करने योग्य नहीं है यह कहा गया है। यह बात थोडी विचित्र तो लगती है कि स्वभावदृष्टिके सद्भावमें सम्यग्दृष्टिकी प्रवृत्ति प्राथमिक अवस्थामे रागरूप होती रहती है, परन्तु इसमें विचित्रताको कोई बात नहीं है, क्योकि जिस प्रकार किसी विद्यार्थी के पढ़नेका लक्ष्य होनेपर भी वह सोता है, खाता है, चलता-फिरता है, और मनोविनोदके अन्य कार्य भी करता है फिर भी वह अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी मोक्षकी उपायभूत. स्वभावदृष्टिको ही अपना लक्ष्य बनाता है। कदाचित् उसके रागके आश्रयसे सच्चे देव, गुरु और शास्त्रकी उपासनाके भाव होते हैं, कदा-. चित् धर्मापदेश देने और सुननेके भाव होते हैं, कदाचित् आजीविकाके