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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा २९९ निरूपण करते हुए मामे उसीमें यह कथन उपलब्ध होता है बत्र तु शुनिश्चये शुद्ध-कस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठतीति शुद्धध्येयत्वाच्छुडावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपत्वाच्च शुद्धोपयोगो पटते । स च भावसवर इत्युच्यते । अ० १,११० ॥ संवरको अपेक्षा शुद्ध निश्चयनयमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव अपना आत्मा ध्येय है. क्योंकि शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्धका अवलम्बन होनेसे और शुद्ध आत्मस्वरूप होनेसे शुद्धोपयोग घटित होता है। भावसंबर इसीका नाम है। सो इस कथनसे भी त्रिकाली ज्ञायक आत्मा ही निश्चयनयका विषय है यही सिद्ध होता है। यहाँ यह संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि अनगारधर्मामृत चरणानुयोगका ग्रन्थ है। तब भी उसमें भावसंवरमें प्रयोजनीय निश्चयनयके विषयका निरूपण करते हुए शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव आत्माको ही ध्येयरूपसे स्वीकार किया गया है, जब कि वह शुभाचारको मुख्यतासे मोक्षमार्ग कहकर उसका निरूपण करता है। उक्त वचनमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्मा ही ध्येयरूपसे क्यो स्वीकार किया गया है, इसका प्रयोजन क्या है यह भी स्पष्टकर दिया गया है। बात यह है कि चरणानु योग और द्रव्यानुयोग दोनों ही परमागम शुभाचारको आस्रव तत्त्वमे गर्भित करते हैं। और आस्रव संवरकी उत्पत्तिका यथार्थ कारण हो नहीं सकता। यही कारण है कि मोक्षमार्गमें शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव आत्मा ही ध्येय हो सकता है, अन्य नहीं । शंका-जब कि चरणानुयोग भी शुभाचारको आस्रवतत्त्वमें गर्मित करता है तब वहाँ उसे मोक्षमार्ग क्यों कहा गया है, क्योंकि आस्रव सवरनिर्जरा-मोक्षका विरोधी भाव है ? समाधान-प्राभूमिकामें सहचर होनेसे ही उपचारसे उसे मोक्षमार्ग कहा गया है । परमार्थसे देखा जाय तो मोक्षमार्ग एक ही है दो नहीं। १०. निश्चयनयके दो भेव और उनका कार्य ___ अब प्रश्न यह है कि शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव आत्माको ध्येय बनाकर जो उसका चिन्तन करता है उसे क्या भावसंवरकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रश्नका समाधान जहाँ उक वचनसे हो जाता है वहीं समयसार
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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