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जैनतत्त्वमीमांसा
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९ निश्चयनयका स्वरूपनिरूपण
अभेदानुपचारया वस्तु निश्चीयते इति निश्चयः । आलापप० अभेदरूपसे और अनुपचाररूपसे वस्तुका निश्चय करना निश्चयनय है ।
'अभेदरूपसे निश्चय करना' इसका अर्थ है कि गुण पर्यायका भेद किये बिना वस्तुके स्वरूपको समझना । तथा 'अनुपचाररूपसे निश्चय करना' इसका अर्थ है कि बाह्य अभ्यन्तर उपाधिसे शून्य 'वस्तुस्वरूपको जानना ।' इसे स्पष्ट करते हुए नयचक्रमें यह वचन आया है
गेह्वइ दम्वसहावं असुद्ध सुद्धोवयारपरिचत्त ।
सो परमभावगाही णायन्यो सिद्धिकामेण ॥। १९८ ।। पृ० १०९ ।
जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचारस्वभावसे रहित परमभावरूप द्रव्यके स्वभावको ग्रहण करता है ( ध्येयरूपसे स्वीकारता है ) सिद्धिके इच्छुक जीव द्वारा वह परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय जानने योग्य है || १९८||
इस प्रकार हम देखते हैं कि नयचक्रके उक्त वचन द्वारा निश्चयनयके स्वरूपपर ही प्रकाश डाला गया है ।
उक्त गाथामें आया हुआ 'सिद्धिकामेण' पद ध्यान देने योग्य है । इस पदद्वारा यह सूचित किया गया है कि जो पुरुष आत्मसिद्धिके इच्छुक है उन्हे एकमात्र इस नयका विषय ही ध्येय बनाने योग्य है । किन्तु इस नयके विषयको ध्येय बनाना तभी सम्भव है जब इस जीवकी दृष्टि न तो सम्यग्यर्शनादिरूप शुद्धपर्यायपर रहती है, न रागादि, मनुष्यादि और मतिज्ञानादिरूप अशुद्ध अवस्थापर रहती है और न ही अतिरिक्त अन्य पदार्थोपर रहती है ।
इस निश्चयनयके विषयभूत आत्माके स्वरूपका निरूपण करते अनगारधर्मामृत में यह वचन आया है
हुए
सर्वेऽपि शुद्ध बुद्ध स्वभावाश्चेतना इति । शुद्धोऽशुद्धश्च रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्चय ॥१- १०३ ॥
सभी जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाववाले है यह शुद्ध निश्चयनय है तथा राग-द्वेष आदिरूप मानना अशुद्ध निश्चयनय है ।। १-१०३॥
यहाँ जिसे अशुद्ध निश्चयनयका विषय कहा गया है वह अध्यात्ममें असद्भूतव्यवहारनयका विषय है यह आगे स्पष्ट करेंगे, क्योकि मोक्षमार्गमें ध्येय एकमात्र शुद्ध निश्चयनयका विषय ही होता है इस तथ्यका