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जैनतत्त्वमीमासा
परमागम इस विषय पर क्या कहता है इसपर विचार करनेके पहले fararaयके भेद और उनके कार्योंको स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। नयचक्रमें इसके भेदोंका निरूपण इस प्रकार दृष्टिगोचर होता है
सवियप्पं जिव्दियत्पं पमाणरूवं जिणेहि णिद्दिट्ठे । तह विह गया वि भणिया सवियप्पा णिब्बियप्पा त्ति ॥ जिनेन्द्रदेवने सविकल्प और निर्विकल्पके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका कहा है । उसी प्रकार सविकल्प और निर्विकल्पके भेदसे नय भी दो प्रकारके हैं ।
जितने भी व्यवहारनय है वे सविकल्प ही होते हैं । एकमात्र निश्चयनय ही सविकल्प और निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका है ।
शका - जिस प्रकार निश्चयनयको दो प्रकारका कहा गया है उसी प्रकार व्यवहारनयको भी सविकल्प और निर्विकल्प माननेमे क्या आपत्ति है ?
समाधान - शंका महत्त्वपूर्ण है । समाधान यह है कि गुण-पर्यायोंसे द्रव्यमे अभेद होनेपर भी भेदकल्पना करना सद्भूत व्यवहारनय है । यही तथ्य द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग दोनो ही आगम स्वीकार करते है । समयसार गाथा ७ की आत्मख्यातिमें इस तथ्यको इन शब्दोमे स्वीकार करता है
धर्म-धर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः ।
धर्म और धर्मी में स्वभावसे अभेद होनेपर भी सज्ञासे भेद उत्पन्न करके व्यवहारमात्रसे ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है और चारित्र है ऐसा उपदेश है ।
'व्यपदेशतो' यह उपलक्षण वचन है । इससे लक्षण, प्रयोजन आदिका ग्रहण हो जाता है । इसी तथ्यको आप्तमीमांसा दर्शनशास्त्र इन शब्दों में स्वीकार करता है
द्रव्य-पर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः ।
परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ ७१ ॥ सज्ञा-संख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः ।
प्रयोजनादिभेदाच्च तम्नानात्वं न सर्वथा ॥७२॥