________________
क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
२६७
विचारधाराको प्रस्तुत कर रहे हैं। वे अपने समर्थन में कर्मसाहित्य और दर्शन न्यायसाहित्य के अनेक ग्रन्थोंके नाम लेनेसे भी नहीं चूकते। पर बे एक बार इन ग्रन्थोंके आधारसे यह तो स्थिर करें कि इनमें निश्चय उपादानकारण और बाह्य निमित्तकारणके ये लक्षण किये गये हैं। फिर उन लक्षणोंकी सर्वत्र व्याप्ति बिठलाते हुए तत्त्वका निर्णय करें। हमारा विश्वास है कि वे यदि इस प्रक्रियाको स्वीकार कर लें तो यथार्थं तत्त्वनिर्णय होनेमें देर न लगे ।
शुद्ध द्रव्यों में तो सब पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं पर अशुद्ध द्रव्यों में ऐसा कोई नियम नहीं है । केवल इतना प्रतिज्ञा वाक्य कह देनेसे क्या होता है ? यदि कोई बाह्य निमित्तकारण निश्चय उपादानकारणमें निहित योग्यताकी परवा किये बिना उस समय निश्चय उपादान द्वारा न होनेवाले कार्यको कर सकता है तो वह मुक्त जीवको संसारी भी बना सकता है । हमें विश्वास है कि वे इस तर्कके महत्त्वको समझेंगे ।
कहीं कहीं for दृष्टिसे बाह्य निमित्तको कर्ता कहा गया है और कहीं कहीं उसे कर्ता न कहकर भी उस पर कर्तृत्व धर्मका आरोप किया गया है यह हम मानते हैं । पर वहाँ वह उसी अर्थ में कर्ता कहा गया है जिस अर्थमे परमार्थं उपादान कर्ता होता है या अन्य अर्थ में । यदि हम इस फरकको ठीक तरहसे समझ लें तो भी तत्त्वकी बहुत कुछ रक्षा हो सकती है । नैगमनका पेट बहुत बड़ा है। उसमें कितनी विवक्षाएँ समाई हुई है यह प्रकृतमें ज्ञातव्य है । जब बाह्य निमित्त कुछ करता नहीं यह कहा जाता है तब वह 'यः परिणमति स कर्ता' इस अनुपचरित मुख्यार्थको ध्यान में रखकर ही कहा जाता है । इसमें अत्युक्ति कहाँ है यह हम अभी तक नहीं समझ पाये । यदि कोई कार्योत्पत्तिके समय 'जो बलाधानमें निमित्त होता है वह कर्ता' इस प्रकार बाह्य निमित्त में कर्तृत्वका उपचार करके बाह्य निमित्तको कर्ता कहना चाहता है, जैसा कि अनेक स्थलों पर शास्त्रकारोंने उपचारसे कहा भी है तो उसका कोई निषेध भी नहीं करता । कार्योत्पत्तिमे अन्य द्रव्य बाह्य निमित्त है इसे तो किसीने अस्वीकार किया नहीं । इतना अवश्य है कि मोक्षमार्ग में स्वावलम्बनकी मुख्यता होनेसे कार्योत्पादन क्षम अपनी योग्यताके साथ पुरुषार्थको हो प्रश्रय दिया गया है और प्रत्येक भव्य जीवको उसी अनुपचरित अर्थको समझ लेनेका मुख्यतासे उपदेश दिया जाता है । क्या यह सच नहीं है कि अपने •त्रिकाली आत्मस्वरूपको भलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र बाह्य निमित्त
1