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जैनतत्वमीमांसा
का अवलम्बन हम अनन्त कालसे करते आ रहे हैं पर अभी तक इष्टफल निष्पन्न नहीं हुआ और क्या यह सच नहीं है कि एक बार भी यदि यह जीव भीतरसे परका अवलम्बन छोड़कर श्रद्धा, ज्ञान, और चर्याके मूल कारण अपने आत्माका अवलम्बन स्वीकार कर ले तो उसे संसारसे पार होनेमें देर न लगे । बाह्य आभ्यन्तर कार्य-कारणपरस्पराका ज्ञ कार्यरूप से तस्त्वनिर्णय के लिए होता है, आश्रयके लिए नहीं । आश्रय तो परनिरपेक्ष त्रिकाली ज्ञायकस्वरूप अपने आत्मा का ही करना होगा । इसके बिना संसारका अन्त होना दुर्लभ है । बहुत कहाँ तक लिखें ।
११ उपसंहार
इस प्रकरणका सार यह है कि प्रत्येक कार्य अपने स्वकालमे ही होता है, इसलिए प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें क्रमनियमित है । एकके बाद एक अपने अपने स्वकालमें निश्चय उपादानके अनुसार होती रहती है । यहाँ पर 'क्रम' शब्द पर्यायोंकी क्रमाभिव्यक्तिको दिखलाने के लिए स्वीकार किया है ओर 'नियमित' शब्द प्रत्येक पर्यायका स्वकाल अपने अपने निश्चय उपादानके अनुसार नियमित है यह दिखलानेके लिए दिया गया है । वर्तमानकालमें जिस अर्थको 'क्रमबद्धपर्याय' शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता हैं, 'क्रमनियमितपर्याय' का वही अर्थ है ऐसा स्वीकार करनेमें आपत्ति नही । मात्र प्रत्येक पर्याय दूसरी पर्यायसे बधी हुई न होकर अपने मे स्वतन्त्र है यह दिखलानेके लिए यहाँपर हमने 'क्रमनियमित' शब्दका प्रयोग किया है। आचार्य अमृतचन्द्रने समयप्राभृत गाथा ३०८ आदिकी टीकामें 'क्रमनियमित' शब्दका प्रयोग इसी अर्थ में किया है, क्योंकि वह प्रकरण सर्वविशुद्धज्ञानका है । सर्वविशुद्धज्ञान कैसे प्रगट होता है यह दिखलानेके लिए समयप्राभृतकी गाथा ३०८ से ३११ तककी arera मीमांसा करते हुए आत्मा कर्म आदि पर द्रव्योंके कार्यका अकर्ता है यह सिद्ध किया गया है. क्योंकि अज्ञानी जीव अनादिकालसे अपनेको परका कर्ता मानता आ रहा है । यह कर्तापनका भाव कैसे दूर हो यह उन गाथाओंमें बतलानेका प्रयोजन है । जब इस जीवको यह निश्चय होता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने क्रमनियमितपनेसे परिणमता है इसलिए परका तो कुछ भी करनेका मुझमें अधिकार है नहीं, मेरी पर्यायोंमें भी मैं कुछ फेरफार कर सकता हूँ यह विकल्प भी शमन करने योग्य है । तभी यह जीव निज आत्माके स्वभावसन्मुख होकर ज्ञाता दृष्टरूपसे परिणमन करता हुआ निजको परका अकर्ता वस्तुता स्वीकार
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