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जैनतत्त्वमीमासा
भगवान्का उपदेश स्वीकार कर पुरुषार्थ किया वे ही कि अन्य सभी प्राणी । इसी प्रकार वर्तमान में या आगे भी जो आसन्नभव्यताका परिपाक काल आने पर भगवान्का उपदेश स्वीकार कर पुरुषार्थं करेंगे वे ही लाभान्वित होंगे कि अन्य सभी प्राणी । विचार कीजिये । यदि बाह्य निमित्तों पदार्थोंकी कार्य निष्पादनक्षम योग्यताका स्वकाल माये बिना अकेले ही अनियत समयमे कार्योंको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य होती तो भव्याभव्यका विभाग समाप्त होकर संसारका अन्त कभीका हो का होता ।
सर्वार्थसिद्धिमे तत्त्वार्थसूत्रकी उत्थानिका लिखते समय आचार्य पूज्यपादने 'प्रत्यासन्ननिष्ठ ' यह विशेषण इसीलिए दिया है कि जिन जीवों का मोक्ष जानेके योग्य पाककाल सन्निकट होता है, वस्तुतः वे ही उसके अनुरूप पुरुषार्थं करके मोक्षगामी होते है, अन्य नही ।
हम यह तो मानते है कि जो लोग भगवान्की वाणीके अनुसार विवेक और तर्कका आश्रय लेकर या बिना लिए स्वयं अपनी विवेक बुद्धिसे तत्त्वका निर्णय तो करते नहीं और केवल सूर्यादिके नियत समय पर उगने और अस्त होने आदि उदाहरणोको उपस्थित कर या शास्त्रोंमें वर्णित कुछ भविष्यत्कथनसम्बन्धी घटनाओंको उपस्थित कर एकान्त नियतिका समर्थन करना चाहते है उनकी यह विचारधारा बाह्य आभ्यतर कार्यकारणपरम्पराके अनुसार विवेक और तर्क मार्गका अनुसरण नही करती, इसलिए वे उदाहरण अपनेमे ठीक होकर भी आत्मपुरुषार्थको जागृत करने में समर्थ नही हो पाते । पण्डितप्रवर बनारसीदास जीके जीवनमे ऐसा एक प्रसंग उपस्थित हुआ था। वे उसका चित्रण करते हुए स्वयं अपने अर्धकथानक में कहते है
करणीका रस जान्यो नहि नहि आयो आतमस्वाद । भई बनारसिकी दशा जथा ऊँटको पाद ||
किन्तु मात्र इस उदाहरणको उपस्थित कर दूसरे विचारवाले मनुष्य यदि अपने पक्षका समर्थन करना चाहे तो उनका ऐसा करना किसी भी अवस्थामें उचित नहीं कहा जा सकता, क्योकि उनकी विचारधारा कार्योत्पत्तिके समय बाह्य निमित्तका क्या स्थान है यह निर्णय करनेकी न होकर निश्चय उपादानको उपादान कारण न रहने देनेकी है। मालूम नहीं, वे निश्चय उपादान और बाह्य निमित्तका क्या लक्षण कर इस