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________________ २१६ जैनतत्वमीमांसा __यद्यपि हम यह मानते हैं कि इन्द्रिय विषयक रागसे देवादि या प्रतादिक विषयक राग प्रशस्त माना गया है। परन्तु केवल इस कारण वह उपादेय नहीं माना जा सकता, क्योंकि किसी भी प्रकारके रागके होनेपर पश्चात्ताप द्वारा उससे विमुख होना ही हितकारी माना गया है। रागबन्ध पर्यायरूप होनेसे सदाकाल हेय ही है । देवादिक तो अन्य हैं। उनकी बात छोड़िये । जहाँ अपने आत्माविषयक राग ही हेय माना गया है वहाँ अन्य पदार्थविषयक राग उपादेय कैसे हो सकता है। इस प्रकार प्रकृतमें षट्कारक विषयक मीमांसाका सांगोपांग विचार किया।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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