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षट्कारकमीमांसा इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस जीवका मोक्षमार्गका प्रारम्भ पराश्रितपनेसे होता है?
समाधान-ज्ञानमार्गका अनुसरण करनेवाले जीवके बीच-बीचमें अरहंतादि भक्तिविषयक जो रागका उत्थान होता है उस समय यह श्रद्धेय है, यह अश्रव्य है। यह श्रद्धाता है, यह श्रद्धान है । यह शेय है, यह अज्ञेय है। यह ज्ञाता है, यह ज्ञान है। यह आचरणीय है, यह अनाचरणीय है। यह आचरिता है और यह आचरण है। इस प्रकार कर्तव्याकर्तव्य तथा कर्ता-कर्मके विभागके अवलोकन द्वारा जिन्हे अनुकरण करने योग्य अतिहृदयग्राही उत्साह उत्पन्न हुआ है वे बिना हटके रत्नत्रय तीर्थका सेवन करने में सफल होते हैं यह उक्त कथनका आशय है।
प्रकृतमें ऐसा समझना चाहिये कि मोक्षमार्गका अनुसरण करनेवाले जीवोंकी दृष्टि एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्मापर ऐसे ही केन्द्रित रहती है जैसे कुम्भकारका चक्र चारों ओर घूमते हुए भी केन्द्रस्थानीय कोलको कभी नहीं छोडता। फिर भी बीच-बीचमे रागका उत्थान होनेपर उनके तीर्थसेवनकी प्राथमिक ( सविकल्प ) दशामें जितने कालतक आशिक शुद्धिके साथ मन-वचन और कायके अवलम्बनपूर्वक अरहंतादिकी भक्ति या व्रतादिमें प्रवृत्ति होती है उतने कालतक परावलम्बी साध्य-साधनभावका अवलम्बन रहता है। परन्तु इसे वे मोक्षका उपाय नही समझकर मात्र स्वावलम्बनरूप स्थितिको ही अपने लिये आत्मीक सुखको प्राप्तिके लिये हितकारी मानते हैं, क्योकि भिन्न साध्य-सावनभावके अनुबन्धसे वे सदा मुक्त रहते है। कदाचित् एतद्विषयक रागका उत्थान होनेपर वह ऐसे ही विलयको प्राप्त हो जाता है जैसे सूर्य किरणोंका निमित्त पाकर हरिद्राका रंग विलयको प्राप्त हो जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए मूलाचार अनगारभावनाधिकार गाथा १०६ की टोकामें मूलका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है__ यद्यपि कदाचिद्रागः स्यात्तथापि पुनरनुबन्ध न कुर्वन्ति, पश्चात्तापेन तत्क्षणादेव विनाशमुपयाति हरिदारवत्तवस्त्रस्य पीतप्रभाररविकिरणस्पृष्टेवेति ।
यद्यपि कदाचित् राग होता है तथापि मोक्षमार्गी जीव रागमे अनुबन्ध नहीं करते, पश्चात्ताप द्वारा तत्क्षण ही वह ऐसे ही विनष्ट हो जाता है जैसे सूर्यको प्रभासे हरिद्रासे रगे हुए वस्त्रपरका रंग उड़ जाता है।