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क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा
निज स्वभावके योगसे नियमित बरसे जीव ।
श्रद्धा यो लखन ही पावे मोक्ष अतीव ।। १. उपोद्धात
अनेक युक्तियों और आगमसे पूर्व में हम यह भलीभांति सिद्ध कर आये हैं कि निश्चय उपादानके अनुसार पदार्थके कार्यरूपसे परिणत होते समय ही अन्य पदार्थों में व्यवहार हेतुत्ता स्वीकार की गई है, आगे-पीछे । नहीं, क्योंकि लोकमें जिन्हें निमित्तकर यह कार्य हुआ यह कहकर उन्हें मिलानेकी बात कही जाती है उनके साथ सर्वदा और सर्वत्र कार्योकी व्याप्ति नहीं देखी जाती। श्री जयधवला पु० ११में बतलाया है कि जो जीव नित्य निगोदसे निकल कर क्रमशः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त पर्यायको प्राप्त होता है उसके उत्कृष्ट संक्लेशके अभाव होनेपर भी उस समय प्राप्त संक्लेशको निमित्तकर उत्कृष्ट अनुभागको लिए हुए कर्मबन्ध होता है। इससे सिद्ध होता है कि बाह्य सामग्री वास्तवमें कार्यकी उत्पादक नहीं होती, क्योंकि जितने भी कार्य होते हैं वे अपनी मूलभूत सामग्रीके स्वभावको नहीं उल्लंघन कर अपने-अपने नियत समय पर ही उत्पन्न होते है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार गाथा ३७२की आत्मख्याति टीकामें कहा भी है
एवं च सति मृत्तिकायाः स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकारः कुम्भस्योत्पादक एव, मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेनैव कुम्भभावेनोत्पद्यते।
ऐसा होनेपर मिट्टी अपने स्वभावको नहीं, उल्लंघन करती, इसलिये कुम्भकार घटका उत्पादक ही नहीं है, वस्तुतः मिट्टी ही कुम्भकारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई स्वयं ही अपने स्वभावसे कुम्भरूपसे उत्पन्न होती है।
यहाँ स्वभावको माध्यम करके ही प्रत्येक समयमें निश्चय उपादानके अनुसार प्रत्येक समयमें कार्यको उत्पत्ति होती है यह स्पष्ट किया गया है और कार्य उत्पत्तिमें बाझ निमित्तका स्थान है यह बतलाया गया है। इसलिये सिद्ध होता है कि निश्चय उपादानके अनुसार कार्य होकर भी उसका क्रम क्या है इसका यहाँ विचार करना है।