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साथ ही धर्म और धर्मीमें सादात्म्य' होनेसे अविनाभाव है। उनकी अस्तित्व सिद्धि परस्परको अपेक्षासे की जाती है। धर्म और धर्मीका स्वरूप स्वतःसिद्ध होता है, परतः सिद्ध नहीं। यह निश्चित तथ्य भी वे प्रकाशमें लाये हैं। इतना ही नहीं, साथ ही वे इस आपेक्षिक कधनको व्यवहारकी कोटिमें परिगणित करते हैं और इसकी पुष्टिमें ज्ञेय-ज्ञायक
और कर्ता-कर्मक अविनाभाव सम्बन्धको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत करते हैं। इससे स्पष्ट है कि कर्ता स्वरूपसे स्वतः सिद्ध है और कर्म भी स्वरूप से स्वतःसिद्ध है। परस्परकी अपेक्षा कथन करना यह मात्र व्यवहार है। धन्य है उनकी ये रचनाएं और उनकी यह दृष्टि। इससे मालूम पड़ता है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेवकी वाणी साक्षान् भगवान् महावीरको वाणी ही होनी चाहिये । वे भगवान्के ५-६ सौ वर्ष बाद जन्मे इसका कोई महत्त्व नहीं है। उन्हें भगवान् सीमन्धर स्वामीका साक्षात् समागम मिला है उक्त कथनसे यह भी सिद्ध होता है। किन्तु वे भरतखण्डकी मर्यादाको भले प्रकारसे हृदयंगम किये हुए थे। यही कारण है कि प्रवचनसारके प्रारम्भमें वे भरतक्षेत्रके चौबीस तीथंकरोंका उल्लेख पूर्वक ही मंगलगान करते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे समग्र रूपसे केवलज्ञानादिपनेकी अपेक्षा ढाई द्वीपके सभी तीर्थंकरोंको भरत क्षेत्र स्थित चौबीस तीर्थंकरोंसे व्यवहारनयको अपेक्षा अभिन्न मानते रहे हैं। ऐसे थे आचार्य कुन्दकुन्ददेव । यही कारण है कि प्राचीन आचार्यों ने 'मंगलं भगवान् वीरो' इत्यादि रचनामें भगवान् महावीर और गौतम गणधरके बाद उनका ही पुण्य स्मरण किया है। इससे 'कुन्दकुन्दार्यो' पाठ ही समीचीन प्रतीत होता है । अस्तु, ८ प्रकृत विषयका विशेष स्पष्टीकरण अतएव यह सिद्धान्त फलित होता है
ज कुणइ भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स ।
कम्मत्तं परिणभदे तम्हि सयं पुग्गलं दन्वं ॥९१॥ समयसार आत्मा जिस भावको करता है वह उस भावका कर्ता होता है। उसके ऐसा होते समय पुद्गल द्रव्य आप ही व्यवहारसे कर्म संज्ञावाली पर्यायरूप परिणमता है।
तात्पर्य यह है कि आत्मा पर निमित्तोंकी अपेक्षा किये बिना स्वतन्त्ररूपसे अपने संसार और मोक्षरूप भावोंका कर्ता है और पुदगल द्रव्य