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जैनतस्वमीमांसा आत्माकी अपेक्षा किये बिना स्वतन्त्ररूपसे अपनी व्यवहारसे कर्म संशाकाली पर्यायोंका कर्ता है। फिर भी इनमें अविनाभावपूर्वक कालप्रत्यासत्ति होनेसे निमित्त-नैमित्तिकभाव स्वीकार किया गया है। इसी भावको स्पष्ट करते हुए पण्डितप्रवर टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशकके पृष्ठ ३७ में कहते हैं
इहाँ कोउ प्रश्न कर कि कर्म तो अड है किछु बलवान् नाही तिनि करि जीवके स्वभावका घात होना या बाह्य सामग्रीका मिलना कैसे संभव है। ताका समाधान-जो कर्म आप कर्ता होय उद्यमकरि जीवके स्वभावको घातै बाह्य सामग्रीको मिला तब तो कर्मक चैतन्यपनी भी चाहिए अर बलवानपनी भी चाहिए सो तौ है नाही, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध है। जब उन कर्मनिका उदयकाल होय तिस काल विष आप हो आत्मा स्वभावरूप न परिणम विभावरूप परिणम या अन्य द्रव्य है ते तैसे ही संबधरूप होय परिणमै । जैसे काहू पुरुषक सिरपर मोहनधूलि परी है तिसकरि सो पुरुष बावला भया । तहाँ उस मोहनधूलिक ज्ञान भी न था अर बावलापना भी न था, अर बावलापना तिस मोहनधूलि ही करि भया देखिए है । मोहनधूलिका तौ निमित्त है अर पुरुष आप ही बावला हुआ परिणम है। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। बहुरि जैसै सूर्यका उदयका काल-विर्ष चकवा-चकवीनिका सयोग होय तहाँ रात्रिविर्ष किसीनै दोष बुद्धितै जोरावरि करि जुदै किय नाही। दिबसविष काहूनै करुणाबुद्धितै जोरावरि करि मिलाए नाही । सूर्य उदयका निमित्त पाय आप ही मिले है अर सूर्यास्तका निमित्त पाय आप ही विछुरै है ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है तैस ही कर्मका भी निमित्त-नैमित्तिक जानना।
यह पण्डितजीका सारभूत कथन है । इस द्वारा उस गुत्थीको सुलझाया गया है जो बाह्य निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके विषयमें सामान्य जनताको उलझनमे डाले रहती है। हमे आश्चर्य उस सामान्य जनताके विषयमें नहीं होता। वह तो अपने इन्द्रिय प्रत्यक्षसे जैसा देखती है वैसा मानकर चलती है, क्योकि इस विषयमें आगम क्यों और क्या कहता है उसे वह प्रायःजानती ही नहीं। आश्चर्य तो उन विद्वानोंपर होता है जो आगम की अवहेलना कर अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष अनुभव और तदनुकूल तर्कको प्रधानता देकर स्वयं भटकते रहते हैं और सामान्य जनताको भी भटकानेका उपाय करते रहते हैं। इसका हमें ही क्या हर किसीको आश्चर्य होना स्वाभाविक है।
भट्टाकलंकदेव भी कहते है कि अपना स्वभावरूप या विभावरूप प्रत्येक कार्य करनेमें जीव और पुद्गल तथा स्वभावरूप कार्य करने में