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कर्तृ-कर्ममोमांसा
दुष्टि होइ पवानिकी अन्यथा माने, अन्यथा परिणमाया बाई तो बाप ही दुखी हो है । बहुरि उनको यथार्थ मानना अर पर परिणमाए अन्यथा परिणभंगै नाही ऐसा मानना सो ही तिस दुःखके दूर होनेका उपाय है! अमजनित दुःख का उपाय भ्रम दूर करना ही है। भ्रम दूरि होने से सम्यक् होय सो ही सत्य उपाय जानना । पृ० ३६१ !
और भी
परद्रम्य जोरावरी तो क्योई विगारता नाही । अपने भाव विमरै तब वह भी बाह्य निमित्त है । बहुरि वाका निमित्त विभा भी भाव विगर है तातै नियमरूप निमित्त भी नाहीं । वही
इसी तथ्यको पण्डितप्रवर बनारसीदासजीने नाटक समयसार सर्वविशुद्धि ज्ञानाधिकारमें उद्घाटित करते हुए लिखा है
कोऊ शिष्य कह स्वाभी राण-द्वेष परिणाम । ताको मूल प्रेरक कहहु तुम, कौन है । पुद्गल करम जोग किधी इन्द्रनिको भोग । किधी धन किधौ परिजन किधौ भौन है । गुरु कहै छहो दर्व अपने अपने रूप । सबनिको सदा असहायी परिनौन है ।। कौऊ दरव काहूको न प्रेरक कदाचि तातै । राग दोष मोह मृषा मदिरा अचौन है ।।६२॥
कोउ मूरख यों कह राग-द्वेष परिणाम । पुद्गलकी जोरावरी वरतं मातमराम ॥६२॥ ज्यो ज्यों पुद्गल बल करै धरि धरि कर्मज भेष । राग-दोषको परिनमन त्यों त्यों होइ विशेष ॥६३॥ इहि विधि जो विपरीत पख गहै सबहे कोई। सो नर राग विरोधसो कबहुँ भिन्न न होइ ॥६४॥ सुगुरु कहे जगमें रह पुदगल संग सदीव । सहज शुद्ध परिणममिको औसर लहे न जीव ॥६५॥ तात चिद्भावनिविर्ष समरथ चेतन रउ ।
राग विरोष मिथ्यातमें समकिसमें सिव भाउ ॥६६॥ इस प्रकार विचार कर हम देखते हैं कि लोकमें जड़-चेतनके जितने | भी कार्य होते हैं वे स्वाधीन ही होते हैं, पराधीन कोई भी कार्य नहीं।