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जनसत्त्वमीमांसा निमित्तों को विलसा कहा गया है और कार्योंको वैस्रसिक कहा गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक समयमें कोंका उपशम आदि विरसा होगा। अतएव जितने भी औपमिक आदिरूप सम्यग्दर्शनादि भाव होंगे वे वैनसिक ही होंगे।
सबसे बड़ी बात जो यहाँ ध्यान देने योग्य है वह यह है कि जैसे आगममें घट, पट, रथ, कर्म और नोकर्मको आत्मा करता है इस कथन को अनादि रूढ़ लौकिक व्यवहार स्वीकार किया गया है वैसे ही कर्म मनुष्यादि पर्यायोंका कर्ता है इसे कही भी अनादि रूढ लौकिक व्यवहार नही स्वीकार किया गया है । सो क्यों ? इसका कारण यह है कि नैयायिक दर्शन आदि ईश्वरको तो जगत्का कर्ता मानते हैं, पर कर्मको जगत्की बात तो छोडिये, वे मात्र अदृष्टको निमित्तरूपमें ही स्वीकारते है, निमित्त कर्ताके रूपमे नही । लौकिक जनोंके कथनका यह दृष्टिभेद आचार्यों के सामने रहा है। अतएव अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर उन्होंने भी इस कथनको जैन दर्शनका मन्तव्य न बतला कर लोकिक जनोंका मन्तव्य बतलाते हुए उपचारके रूपमे उसे स्वीकर कर लिया। तथ्य रूपमें तो आचार्य पूज्यपादके कथनानुसार सभी बाह्य निमित्त धर्मादि द्रव्योंके समान विस्रसा उपलब्ध होते है। आचार्यदेव कुन्दकुन्दने भी समयसार गाथा ३२१-३२३ में इसी तथ्यका उद्घाटन करते हुए यहो कहा है कि जैसे लौकिक जनोंका यह कहना देव, नारकी आदिको विष्णु करता है उसी प्रकार यदि श्रमणोंका आत्मा भी पर कार्योंका करनेवाला माना जाय तो दोनोंमें कोई भेद नही रहता । श्रमण भी लौकिक हो जाते है। (स्पष्ट है कि पर निमित्तमें कर्तृत्वकी मान्यता जैनागमको नही है और न पर कर्तृत्वकी दृष्टि से बाह्य पदार्थोंमें निमित्तता ही स्वीकार की गई हैं।
पण्डित प्रवर टोडरमलजीने भी मोक्षमार्ग प्रकाशकमे इसी तथ्यको स्वीकार कर उसका प्रतिपादन किया है । वे लिखते हैं
बहुरि इस संमारी के एक यह उपाय है जो आपन जैसा श्रद्धान है तैसे पदार्थनिको परिणमाया चाह सो वे परिणमै तौ याका साचा श्रद्धान होइ जाय । परन्तु अनादिनिधन वस्तु जुदै जुदै अपनी मर्यादा लिए परिणमें है। कोऊ कोऊके आधीन नहो । कोऊ किसीका परिणमाया परिणम नाहीं। तिनिकौं परिणमाया चाहै सो उपाय नाही 1 यह तो (मैं इसका परिणमन करनेमें समर्थ हूँ ऐसी अहंकाररूप कर्ताबुद्धि) मिथ्यादर्शन ही है। तो सांचा उपाए कहा है। जैसे पदार्थनिका स्वरूप है तैसे श्रद्धान होइ तो सर्व दु ग्व दूर होनेका उपाय है। तेसै मिथ्या