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जैनतत्त्व-मीमांसा
के कारण प्रत्यक्षसिद्ध होनेसे सम्यग्दर्शनको अनुमानका विषय मानने में भी कोई विरोध नहीं है ।
दूसरे मतकी अपेक्षा तो यद्यपि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन स्वसंवेद्य है ऐसा होने पर भी विवादका सद्भाव होनेसे उसका निराकरण करनेके लिए सम्यग्दर्शनका प्रशमादिकके द्वारा अनुमान किया जाता है ऐसा मामने में कोई विरोध नही है ।
कितने ही व्यक्ति सम्यग्ज्ञान ही सम्यग्यदर्शन है ऐसा विवाद करते है उनके प्रति सम्यग्यज्ञानसे सम्यग्दर्शनमें भेद है इस बातको सम्यग्दर्शनके कार्यरूप प्रशमादिकके द्वारा प्रकट की जाती है ।
यद्यपि सरागियोंमें सम्यग्दर्शनके कार्यरूप प्रशमादिक तो होते है परन्तु वीत रागियों में कायादिकके व्यापार विशेषके अभाव में वे नही दृष्टिगोचर होते हैं ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं
सर्वेषु सरागेषु सद्दर्शन प्रशमादिभिरनुमीयते इत्यनभिधानात् । यथासम्भवसरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धि मात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् ।
समस्त सम्यग्दृष्टियों में सम्यग्दर्शन प्रशमादिकके द्वारा अनुमित होता है ऐसा हमने नही कहा है । किन्तु यथासम्भव सराग और वीतराग जीवोंमें सम्यग्दर्शन प्रशमादिकके द्वारा अनुमित होता है और वह आत्मविशुद्धिमात्र है ऐसा हमने कहा है ।
परमात्मप्रकाश टीकामें सराग सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन एक ही है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है
प्रशम - सवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षण सरागसम्यक्व भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति । तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्याणीति । पृ० १४३ ।
प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला सरागसम्यक्त्व कहा जाता है । वही व्यवहार सम्यक्त्व है । इसके विषय छह द्रव्य है ।
इतने विवेचनसे ये तथ्य फलित होते है
(१) निश्चय सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति ज्ञायक स्वरूप आत्माके उपयोगके विषय होने पर तत्स्वरूप एकाकार परिणतिरूप स्वानुभवके कालमें ही होती है ।
(२) ऐसी अवस्थाके प्रथम समयसे लेकर दर्शन मोहनीयकी यथासम्भव प्रकृतियोंके अन्तरकरण उपशम आदि तथा अनन्तानुबन्धीके