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- उमतिमिल मीमांसा उबयामावरूप उपशम या विसंयोजनाप क्षयमें व्यवहार हेतुला.घटित होती है। यह व्यवहार हेतुता आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके काल तक सतत बनी रहती है।
(३) अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्य उपादान और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्य कार्य यह क्रम भी सतत चलता रहता है। मात्र सम्यग्दर्शनके कालके भीतर शायक आत्मलक्षी परिणामकी ओर झुकावका विच्छेद कभी नहीं होता। इतनी विशेषता है कि सविकल्प दशामें उस
ओरका झुकाव बना रहता है और निर्विकल्प दशामें उपयोग ज्ञायक स्वरूप आत्मासे एकाकार होकर उपयुक्त रहता है।
(४) आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्भग्दर्शनके वे प्रशमादिक व्यवहारसे स्वीकार किये गये हैं। इससे प्रशमादिक भाव उक्त सम्यग्दर्शनके व्यवहारसे निमित्त हैं । कारण कि इन द्वारा निश्चयसम्यग्दर्शनके अस्तित्व को सूचना मिलती है । एक अपेक्षा ये ज्ञापक निमित्त भी हैं।
(५) उक्त कथनसे ज्ञात होता है कि किन्हीं सरागी जीवोमें ज्ञान और वैराग्य शक्ति व्यक्तरूपसे दृष्टिगोचर होती है और किन्हींमें वह व्यक्तरूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ज्ञान और वैराग्य शक्तिका योग सब सम्यग्दृष्टियोंक होता ही है इतना अवश्य हैं।
(६) आस्तिक्य सम्यग्ज्ञानका भेदविशेष है, इसलिये एक आत्मापने की अपेक्षा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अभेद करके अस्तिक्यभावको भी यहाँ सम्यग्दर्शन कहा गया है। ___ आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन तो है, परन्तु चाहे यह जीव सरागी भले ही क्यों न हो, किसी किसीके उसका संवेग आदिरूप व्यवहार नहीं होता यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके उक्त उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है। इससे मालूम पड़ता है कि जीवकी प्रत्येक पर्यायका मूल कारण उपादानका होना पर्याप्त है। उसके साथ यदि पर वस्तुके प्रति ममकार और अहंकारके रूपमें उपयोग परिणाम रहता है तो संसारकी सृष्टि होती है और शायकस्वरूप आत्माको विषय कर उपयोग परिणाम होता है तो मोक्ष जानेके मार्गका द्वार खुलकर उस पर यह जीव चलने लगता है।
प्रत्येक पर्यायका कालविशेष व्यवहार निमित्त है ऐसा एकान्त नियम है। अन्य वाहा संयोग बनो या न बनो। यदि बाझ संयोग बनता है तो वह भी स्वकालमें ही बनता है। कभी भी किसी पदार्थका संयोग हो