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उभयनिमित्त-मीमांसा
१२७ पाँच प्रकारके परिवर्तनरूप संसारसे भीरुताको संवेग कहते हैं । त्रस और स्थावर प्राणियों में दयाका होना अनुकम्पा है। तथा युक्ति और भागमसे अविरुद्ध जीवादि पदार्थो में यथार्थपनेको प्राप्त होना आस्तिक्य है। ये प्रत्येक मिलकर स्वयंमें स्वसंविदित होकर तथा अन्य जीवों में शरीर
और वचनके व्यवहार विशेषरूप हेतुसे अनुमित होकर सराग सम्यग्दर्शनको ज्ञापित करते हैं।
आगे तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनमें और प्रशमादिकमें अन्तरको स्पष्ट करते हुए लिखा है
ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्याः श्रद्धानमाप तत्वार्थानां किन्न स्वसंवेद्यम्, यतस्तेभ्योऽनुमीयते । स्वसंवेद्यत्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति क. श्रदधीतान्यत्र परीक्षकादिति चेत् ? नैतत्सारम, दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात् । स्वसंवेद्यं पुनरास्तिक्यं तदभिव्यजकं प्रशम-संदेगानुकम्पावत् कथचित्ततो भित्रम्, तत्फलत्वात् । तत एव फलतद्वतोरभेदविवक्षायामास्यिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुद्धधते । मतान्तरापेक्षया च स्वसंविदतेऽपि तत्त्वार्थश्रद्धाने विप्रतिपत्तिसद्भावात् तन्निकरणाय तत्र प्रशमाविलिंगादनुमाने दोषाभावः सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति हि केचिद्विप्रवदन्ते, तान् प्रति ज्ञानात् भेदेन दर्शनं प्रशमादिभि कार्यविशेषैः प्रकाश्यते ॥८६॥
शका-प्रशमादिक यदि स्वयंमें स्वसंवेद्य हैं तो जीवादि पदार्थों का श्रद्धान स्वसंवेद्य क्यों नहीं है, जिससे कि प्रशमादिकसे पदोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अनुमान किया जाता है, क्योंकि स्वसंवेद्यपनेकी अपेक्षा भेद न होने पर भी प्रशमादिकके द्वारा तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन का अनुमान किया जाता है, परन्तु तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके द्वारा प्रशमादिकका अनुमान नहीं किया जाता, परीक्षकको छोड़कर और कौन ऐसा श्रद्धान करेगा? __ समाधान-यह कहना सारभूत नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहादिके उपशमादियुक्त आत्मश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके स्वसंवेद्यपनेका निश्चय नहीं होता। परन्तु आस्तिक्य स्वसंवेद्य है जो प्रशम, संवेग और अनुकम्पाके समान तत्त्वार्य श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अभिव्यंजक है, इसलिए तस्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनसे कथंचित् भिन्न है, क्योंकि वह तत्त्वार्य श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका फल है । इसलिए फल और फलवान्में कथंचित् अमेद विवक्षामें आस्तिक्य ही तत्त्वार्थश्रद्धान है। यतः सम्यग्दर्शन आस्तिक्य