________________
जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ६९
ग्रन्थकार प्रमाणलक्षणमें 'अपूर्व', 'अनधिगत', 'अनिश्चित', 'अनिर्णीत' और 'अज्ञात' जैसा विशेषण आवश्यक समझते हैं । इस श्रेणी में अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र और धर्मभूषण प्रभृति विद्वान हैं । पर कतिपय ग्रन्थलेखक उक्त पदको आवश्यक नहीं समझते । इनका मन्तव्य है कि प्रमाण गृहीतग्राही भी रहे तो उससे उसका प्रामाण्य समाप्त नहीं होता । यह विचार देवसूरि, हेमचन्द्र प्रभृति तार्किकोंका है । इतना तथ्य है कि प्रमाणको 'स्वार्थ व्यवसायात्मक' सभीने स्वीकार किया है । (घ) प्रमाण-भेद :
उक्त प्रमाण कितने प्रकारका है और उसके भेदोंका सर्वप्रथम प्रतिपादन करनेवाली परम्परा क्या है ? दार्शनिक ग्रन्थोंका आलोडन करनेपर ज्ञात होता है कि प्रमाणके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चार भेदोंको परिगणना करनेवाले न्यायसूत्रकार गौतमसे भी पूर्व प्रमाणके अनेक भेदोंकी मान्यता रही है, क्योंकि उन्होंने ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इन चारका स्पष्ट रूपमें उल्लेख करके उनको अतिरिक्त प्रमाणताकी समीक्षा की है तथा शब्द में ऐतिह्यका और अनुमान में शेष तीनका अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है । प्रशस्तपादने प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणोंका ही समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमार्णोका इन्हीं दो में समावेश किया है । तथा चेष्टा, निर्णय, आर्प ( प्रातिभ ) और सिद्धदर्शनको भी इन्हीं के अन्तर्गत सिद्ध किया है । ४
प्रशस्तपादसे पूर्व कणादने प्रत्यक्ष और लैङ्गिकके अतिरिक्त अन्य प्रमाणोंकी कोई सम्भावना या गौतमकी तरह उनके समावेशादिकी चर्चा नहीं को । इससे प्रतीत होता है कि प्रमाणके उक्त दो भेदोंकी मान्यता प्राचीन है । चार्वाक के " मात्र अनुमान - समीक्षण और केवल एक प्रत्यक्ष के समर्थनसे भी यही अवगत होता है । जो हो, इतना तथ्य है कि प्रत्यक्ष और अनुमान इन दोको वैशेषिकों और
१. गृहोष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् ।
- प्र० मो०, १:१४, पृष्ठ ४ ।
२. न चतुष्ट्वम् ऐतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात् । शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमाऽर्थापत्तिसम्भवाभावानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।
-न्या० सू० २/२/१, २ १
३. शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भावः समानविधित्वात् ।...।
-प्रश० भा० पृष्ठ १०६ - १११ ।
४. बही, पृष्ठ १२७-१२९ ।
५. माधवाचार्य, सर्वद० सं० ( चार्वाकदर्शन), पृष्ठ ३ । ६. तयोर्निष्पत्तिः प्रत्यक्षलैंगिक । भ्याम् ।
- कणाद, वै० सू० १०।१।३ ।