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संक्षिप्त अनुमान विवेचन : ३५ तार्किकों द्वारा मुख्यतया प्रयुक्त अनन्तरीयक ( या नान्तरीयक) तथा प्रतिबन्ध और जैन तर्कग्रन्थकारों द्वारा प्रधानतया प्रयोग में आने वाले अविनाभाव एवं व्याप्ति जैसे शब्द उद्योतकरके वाद न्यायदर्शनमें समाविष्ट हो गये एवं उन्हें एकदूसरेका पर्याय माना जाने लगा । जयन्त भट्टने' अविनाभावका स्पष्टीकरण करने के लिए व्याप्ति, नियम, प्रतिबन्ध और साध्याविनाभावित्वको उसीका पर्याय बतलाया है । वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि हेतुका कोई भी सम्बन्ध हो उसे स्वाभाविक एवं नियत होना चाहिये और स्वाभाविकका अर्थ वे उपाधिरहित बतलाते हैं । इस प्रकारका हेतु ही गमक होता है और दूसरा सम्बन्धी ( साध्य ) गम्य | तात्पर्य यह कि उनका अविनाभाव या व्याप्तिशब्दोंपर जो नहीं है । पर उदयन है, केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट", विश्वनाथ पंचानन प्रभृति नैयायिकोंने व्याप्ति शब्दको अपनाकर उसीका विशेष व्याख्यान किया है तथा पक्षधर्माता के साथ उसे अनुमानका प्रमुख अंग बतलाया है। गंगेश और उनके अनुवर्ती वर्द्धमान उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, वासुदेव मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ तर्कवगीश, जगदीश तकलिकार, गदाधर भट्टाचार्य आदि नव्य नैयायिकोंने' व्याप्तिपर सर्वाधिक चिन्तन और निबन्धन किया है । गङ्गेशने तत्त्वचिन्तामणि में अनुमानलक्षण' प्रस्तुत करके उसके व्याप्ति और पक्षधर्मता" दोनों अंगों का नव्यपद्धति से विवेचन किया है । प्रशस्तपाद-भाष्य में भी अविनाभावका प्रयोग उपलब्ध होता है । उन्होंने अविनाभूत लिंगको लिंगीका गमक वतलाया है । पर वह उन्हें त्रिलक्षणरूप ही अभिप्रेत है । यही कारण है कि टिप्पणकारने अविनाभावका अर्थ 'व्याप्ति' एवं
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१. अविनाभावी व्याप्तिनियमः प्रतिबन्धः साध्याविनाभावित्वामत्यर्थः ।
न्यायकलि० पृष्ठ २ ।
२. तस्माद्यो वा स वाऽस्तु सम्बन्धः, केवलं यस्यासी स्वामात्रिको नियतः स एव गमको गम्यश्चेतरः सम्बन्धाति युज्यते । तथा हि धूमादीनां वयादिसम्बन्धः स्वाभाविकः, न तु वह्न्यादीनां धूमादिभिः। तस्मादुपाधिं प्रयत्नेनान्विष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तीत्यवगम्य स्वाभाविकत्वं सम्बन्धस्य निश्चिनुमः ।
-न्यायवा० ता० टी० १/१/५, पृष्ठ १६५ ।
३. किरणा० पृष्ठ २९०, २९४, २९५-३०२ ।
४. तर्कमा पृष्ठ ७२, ७८, ८२, ८३, ८८ । ५. तकसं० पृष्ठ ५२-५७ ।
६. सि० मु० का० ६८, पृष्ठ ५१-५५ ।
७. इनके ग्रम्थोद्धरण विस्तारभयसे यहाँ अप्रस्तुत हैं ।
८. त० चि० अनु० खण्ड, पृ० १३ ।
९. वही, पृ० ७७-८२, ८६-८९, १७१-२०८, २०१-४३२ ।
१०. वही, अन० ख० पृष्ठ ६२३-६३१ ।
११-१२. प्र० भा० पृ० १०३ तथा १०० । १३. वही, दुण्डिराज शास्त्री, टिप्प० पृ० १०३ ।