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२८ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार
भावी ) भी होना चाहिए, इसका उनसे कोई संकेत नहीं मिलता। उद्योतकर' के न्यायवातिकमें अविनाभाव और व्याप्ति दोनों शब्द प्राप्त हैं। पर उद्योतकरने उन्हें परमतके रूप में प्रस्तुत किया है तथा उनकी आलोचना भी की है। इससे प्रतीत होता है कि न्यायवातिककारको भी न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकारको तरह अविनाभाव और व्याप्ति दोनों अमान्य है। उल्लेख्य है कि उद्योतकर अविनाभाव और व्याप्ति की आलोचना ( न्यायवा० १।११५, पृष्ट ५४, ५५ ) कर तो गये। पर स्वकीय सिद्धान्तको व्यवस्थामें उनका उपयोग उन्होंने असन्दिग्ध रूपमें किया है। उनके परवर्ती वाचस्पति मिश्रने अविनाभावको हेतुके पांच रूपोंमें समाप्त कहकर उसके द्वारा ही समस्त हेतुरूपोंका संग्रह किया है। किन्तु उन्होंने भी अपने कथनको परम्परा-विरोधी समझकर अविनाभावका परित्याग कर दिया है और उद्योतकरके अभिप्रायानुसार पक्षधर्मत्वादि पाँच हेतुरूपोंको ही महत्त्व दिया है, अविनाभावको नहीं। जयन्त भट्टने अविनाभावको स्वीकार करते हुए भी उसे पक्षधर्मत्वादि पाँच रूपोंमें समाप्त बतलाया है। __ इस प्रकार वाचस्पति और जयन्त भट्टके द्वारा जब स्पष्टतया अविनाभाव और व्याप्तिका प्रवेश न्यायपरम्परामें हो गया तो उत्तरवर्ती न्यायग्रन्थकारोंने उन्हें अपना लिया और उनकी व्याख्याएं आरम्भ कर दीं। यही कारण है कि बौद्ध
१. (क) अविनाभावेन प्रतिपादयतीति चेत् । अथापीदं स्यात् अविनाभावाऽग्निधूमयोरतो
धूमदनादग्निं प्रतिपद्यत इति । तन्न । विकल्पानुपपत्तेः । आंग्नधूमयोरविनाभाव इति कोऽर्थः ? किं कार्यकारणभावः उतैकार्थसमवायः तत्सम्बन्धमात्रं वा ।... -उद्योतकर, न्यायपा. १६११५, पृष्ठ ५०, चौखम्भा, काशी, १९१६ ई० । (ख) अथोत्तरमवधारणमवगम्यते तस्य च्याप्तिरर्थः तथाप्यनमेयमवधारितं व्याप्त्या न धमों, यत एव करणं ततोऽन्यत्रावधारणमिति । सम्भवव्याप्त्या चानमेयं नियतं...।
-वही, १६१५, पृष्ठ ५५,५६ । २. (क) सामान्यतोदृष्टं नाम अकार्याकारणीभूतेन यत्राविनाभाविना विशेषणेन विशेष्यमाणो धर्मी गम्यते तत् सामान्यतोदृष्टं यथा बलाकया सलिलानुमानम् ।
-न्यायवा० १.१।५, पृष्ठ ४७ । (ख)प्रसिद्धमिति पक्षे व्यापकं, सदिति सजातीयेऽस्ति, असन्दिग्यांमति सजातीया
विनाभावि।-वही, ११११५५, पृष्ठ ४९ । ३. यद्यप्यविनाभाव: पंचसु चतुर्यु वा रूपेषु लिंगस्य समाप्यते इत्य विनाभावेनैव सर्वाणि _ लिंगरूपाणि संगृह्यन्ते, तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाभ्यां द्वयोः संगृहे गोवलाबर्दन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षातरेकासत्प्रतिपक्षत्वाबाधित विषयत्वानि संगृह्णाति । -न्यायवा० ता० टी० १११।५, पृष्ठ १७८, चौखम्भा, १९२५ ई० ।
विनाभावः समाप्यते। -न्यायकलिका पृष्ठ २ ।