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४ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार
वाल्मीकि रामायणकी तरह पण्डितक, हेतुक और वेदनिन्दक कहकर उनकी भय॑ना भी को है । तात्पर्य यह कि तर्कविद्याके सदुपयोग और दुरुपयोगकी ओर उन्होंने संकेत किया है। एक अन्य प्रकरणमें नारदको पंचावयवयुक्त वाक्यके गुणदोषोंका वेत्ता और 'अनुमानविभागबित्' बतलाया है। इन समस्त उल्लेखोंसे अवगत होता है कि महाभारतमें अनुमानके उपादानों और उसके व्यवहारकी चर्चा है।
आन्वीक्षिकी शब्द अनुमानका बोधक है। इसका यौगिक अर्थ है अनुपश्चात् + ईक्षा ... देखना अर्थात् फिर जाँच करना । वात्स्यायनके २ अनुसार प्रत्यक्ष और आगमसे देखे-जाने पदार्थको विशेष रूपसे जाननेका नाम 'अन्वीक्षा' है और यह अन्वीक्षा ही अनुमान है। अन्वीक्षापूर्वक प्रवृत्ति करनेवाली विद्या आन्वीक्षिको-न्यायविद्या-न्यायशास्त्र है । तात्पर्य यह कि जिस शास्त्रमें वस्तुसिद्धिके लिए अनुमानका विशेष व्यवहार होता है उसे वात्स्यायनने अनुमानशास्त्र, न्यायशास्त्र, न्यायविद्या और आन्वीक्षिको बतलाया है। इस प्रकार आन्वीक्षिकी न्यायशास्त्रको संज्ञाको धारण करती हुई अनुमानके ऋपको प्राप्त हुई है। डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषणने आन्वीक्षिकीमें आत्मा और हेतु दोनों विद्याओंका समावेश किया है । उनका मत है कि सांख्य, योग और लोकायत आत्माके अस्तित्वको सिद्धि और असिद्धि में प्राचीन कालसे ही हेतुवाद या आन्वीक्षिकीका व्यवहार करते आ रहे हैं।
कौटिल्यके अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकीके समर्थनमें कहा गया है कि विभिन्न युक्तियों द्वारा बिषयोंका बलाबल इसी विद्याके आश्रयसे ज्ञात होता है। यह
१. व्यास, महाभा० सभा पर्व ५/५, । २. प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं साऽन्यीक्षा। प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वाक्षा ।
तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिका न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् ।- वात्स्यायन, न्यायभा०
१।१।१; पृ०७। 3. Anviksiki deald in fact with two subjects, viz Atma, Soul,
and Hetu, theory of reasons Vātsyāyana obscrves that Āuviksiki without the theory of reasons would have like the upanisad been a mere Ātma-vidyā or Adhyatmavidvā. It is the theory of reasons which distinguished it froin the same the Sāmkhya, yoga & Lokāyata, in so far as they treated of reasons affirming of denying the existence of Soul, were included by Kovtilya in the Anviksiki. -A History of Indian Logice, Calcutta University 1921,
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४. कौटिल्य, अर्थशास्त्र विद्यासमुद्दे श १११, पृ० १०, ११ ।