________________
२०० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार
होगा उसमें अन्यथानुपपत्ति रहती ही नहीं - साध्यके होनेपर ही होनेवाले और साध्य के अभाव में न होनेवाले साधनमें ही वह पायो जाती है। सच तो यह है कि जो हेतु अन्यथा उपपन्न है या साध्याभाव के साथ ही रहता है या साध्याभावमें भी विद्यमान रहता है वह अन्यथानुपपन्न - साध्यके होनेपर ही होनेवाला और साध्यके अभाव में न होनेवाला कैसे कहा जा सकता है। अतः एक अन्यथानुपपन्नत्वलक्षणसे ही जब उक्त तीनों दोषोंका परिहार सम्भव है तब उनके व्यवच्छेद के लिए हेतुके तीन लक्षणोंका मानना व्यर्थका विस्तार है ।
इस सन्दर्भ में विद्यानन्दने' उद्योतकर, वाचस्पति और जयन्तभट्टद्वारा स्वीकृत हेतुके पाँच रूपोंकी भी मीमांसा करते हुए प्रतिपादन किया है कि अविनाभावि हेतु प्रयोग और प्रत्यक्षाद्य विरुद्ध साध्यके निर्देशसे ही उक्त असिद्धादि तीन दोषोंके साथ बाधितविषय और सत्प्रतिपक्ष हेतुदोषोंका भी निरास हो जाता है । अतः उनके निराकरण के लिए पक्षव्यापकत्व, अन्वय, व्यतिरेक, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इन पाँच हेतुरूपोंको मानना व्यर्थ और अनावश्यक है । हाँ, उन्हें अविनाभावनियमका प्रपंच कहा जा सकता है। पर आवश्यक और उपयोगी एकमात्र अविनाभाव ही है, जिसे उन्हें भी मानना पड़ता है । यथार्थ में जो हेतु बाधितविषय या सत्प्रतिपक्ष होगा, उनमें अविनाभाव नहीं रह सकता । अतः यदि असा - धारण लक्षण कहना है तो अन्यथानुपपन्नत्वको ही हेतुका असाधारण लक्षण स्वीकार करना उचित एवं न्याय्य है । विद्यानन्दने पात्रस्वामी के रूप्यखण्डनके अनुकरण पर पाँचरूप्यके खण्डनके लिए भी अधोलिखित कारिकाका निर्माण किया हैअन्यथानुपपन्नस्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम् ॥
२
जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व है वहाँ पाँच रूपोंकी क्या आवश्यकता है ? और जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है वहीं पांच रूप रहकर भी क्या कर सकते हैं ? तात्पर्य यह कि अन्यथानुपपन्नत्वके अभाव में पाँच रूप अप्रयोजक हैं ।
विद्यानन्दके उत्तरवर्ती वादिराज भी उनकी तरह पाँचरूप्य हेतुकी समीक्षा करते हुए अन्यथानुपपत्तिको ही हेतुका प्रधान लक्षण प्रतिपादन करते हैं— अन्यथानुपपत्तिश्चेत् पाँचरूप्येण किं फलम् । विनाऽपि तेन तन्मात्रात् हेतुभावावकल्पनात् ॥ नान्यथानुपपतिश्चेत पाँचरूप्येण किं फलम् । सताऽपि व्यभिचारस्य तेनाशक्यनिराकृतेः ॥
१, प्रमाणप० पृ० ७२ । २. वही, पृ० ७२ ।