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________________ हेतु-विमर्श : १९९ बतलाया है। तथा पक्षधर्मत्वादिको हेतुलक्षण मानने में अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोनों दोष दिखाये हैं । जैसे-(१) ये आम्रफल पक्व है, क्योंकि एकशाखाप्रभव हैं, उपयुक्त आम्रफलको तरह । ( २ ) वह श्याम है, क्योंकि उसका पुत्र है, अन्य पुत्रोंकी तरह । (३) वह भूमि समस्थल है, क्योंकि भूमि है, समस्थलरूपसे प्रसिद्ध भूभागको तरह । ( ४ ) वज्र लोहलेख्य है, क्योंकि पार्थिव है, काष्ठकी तरह, इत्यादि हेतु विलक्षण होनेपर भी अविनाभावके न होनेसे साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं हैं। इसके विपरीत अनेक हेतु ऐसे हैं जो त्रिलक्षण नहीं है पर अन्यथानुपपत्तिमात्रके सद्भावसे गमक हैं । यथा-(१) विश्व अनेकान्तात्मक है, क्योंकि वह सत्स्वरूप है। (२) समुद्र बढ़ता है, क्योंकि चन्द्रकी वृद्धि अन्यथा नहीं हो सकती। ( ३ ) चन्द्रकान्तमणिसे जल झरता है, क्योंकि चन्द्रोदयकी उपपत्ति अन्यथा नहीं बन सकती। ( ४ ) रोहिणी उदित होगी, क्योंकि कृत्तिकाका उदय अन्यथा नहीं हो सकता । ( ५ ) राजा मरनेवाला है, क्योंकि रात्रिमें इन्द्रधनुषको उत्पत्ति अन्यथा नहीं हो सकतो। ( ६ ) राष्ट्रका भंग या राष्ट्रपतिका मरण होगा, क्योंकि प्रतिमाका रुदन अन्यथा नहीं हो सकता। इत्यादि हेतुओंमें पक्षधर्मत्वादि त्ररूप्य नहीं है फिर भी वे अन्यथानुपपन्नत्वमात्रके बलसे साध्यके साधक हैं । अत: 'इदमन्तरेण इदमनुपपन्नम्'-'इसके बिना यह नहीं हो सकता' यही एक लक्षण लिंगका है। अपने इस निरूपणकी पुष्टिमें वीरसेनने पात्रस्वामीका पूर्वोक्त 'अन्यथानुपपन्नत्वम्' आदि श्लोक भी प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है। विद्यानन्दकी विशेषता यह है कि उन्होंने अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अविनाभावको हेतुलक्षण माननेके अतिरिक्त धर्मकीर्तिके उस रूप्यसमर्थनकी भी समीक्षा की है जिसमें धर्मकी तिने असिद्धके निरासके लिए पक्षधर्मत्व, विरुद्ध के व्यवच्छेदके लिए सपक्षसत्त्व और अनैकान्तिकके निराकरणके लिए विपक्षासत्त्वकी सार्थकता प्रदर्शित की है। विद्यानन्दका कहना है कि अकेले अन्यथानुपपत्तिके सद्भावसे ही उक्त तीनों दोषोंका परिहार हो जाता है । जो हेतु असिद्ध, विरुद्ध या अनैकान्तिक अत्रिलक्षणान्यपि साध्यसिद्धये प्रभवन्ति । ततः इदमन्तरेण इदमनुपपन्नमितीदमेव लक्षणं लिंगस्येति । -षट्० धव०, ५/५६४३, पृ० २४५, २४६ । १. तत्र साधनं साध्याविनामावनियमनिश्चयेकलक्षणं लक्षणान्तरस्य साधनाभासेऽपि भावात् । त्रिलक्षणस्य साधनस्य साधनत्वानुपपत्तेः, पंचादिलक्षणवत् । -प्रमाणप० पृ० ७०। २. हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । असिद्धबिपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ।। -प्रमाणवा० १।१७। ३. प्रमाणप० पृ०७२ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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