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देतु-विमर्श : १९० नुपपन्नत्वं' कारिकाको उसकी ३२३ वी कारिकाके रूपमें प्रस्तुत करके उसे ग्रन्थका ही अंग बना लिया है । जहां अन्यथानुपन्नस्ब नहीं है उन्हें वे' हेत्वाभास बतलाते हैं और इस तरह परकल्पित स्वभावादि, वीतादि, संयोग्यादि और पूर्ववदादि हेतुओंको उन्होंने अन्यथानुपपन्नत्वके सद्भावमें हेतु और असद्भावमें हेत्वाभास घोषित किया है । तात्पर्य यह कि अकलंक भी अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अविनाभावको हेतुका प्रधान और एकलक्षण मानते हैं। तथा त्रिलक्षणोंको उसके बिना अनुपयोगी, व्यर्थ और अकिंचित्कर प्रतिपादन करते हैं।'
धर्मकीर्तिने भी यद्यपि अविनाभावको स्वीकार किया है, पर वे उसे उक्त पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों तथा स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि इन तीन हेतुभेदोंमें ही सीमित प्रतिपादित करते हैं। अकलंकने उनके इस मतको आलोचना करते हुए कहा है कि कितने ही हेतु ऐसे हैं जिनमें न पक्षधर्मत्वादि है और न वे उक्त तीन हेतुओंके अन्तर्गत हैं । पर उनमें अविनाभाव पाया जाता है । यथा --
(१) मुहूर्तान्तमें शकटका उदय होगा, क्योंकि कृत्तिकाका उदय है ।
यहां कृत्तिकाका उदय हेतु पक्ष-शकटमें नहीं रहता, अतः उसमें पक्षधर्मत्व नहीं है। कोई सपक्ष न होनेसे सपक्षसत्त्व भी नहीं है। इसी प्रकार कृत्तिकाका उदय शकटोदयका न स्वभाव है और न कार्य । तथा उपलम्भरूप होनेसे उसके अनुपलम्भ होनेका प्रश्न ही नहीं उठता । अतः केवल अविनाभावके बलसे वह अपने उत्तरवर्ती शकटोदयका गमक है।
(२) कल प्रातः सूर्यका उदय होगा, क्योंकि आज उसका उदय है । यहाँ आजका सूर्योदय कलके प्रातःकालीन सूर्य में नहीं रहता, अतः पक्षधर्मत्व
५. न्या० वि० का० ३४३, अकलंकग्र० पृ० ७६ । २. न्या० वि० का० ३७०, ३७१, पृ० ७९ । ३. हेतुबि० पृ० ५४ । ४. लघीय० का० १३, १४, न्यायवि० का० ३३८, ३३६ । 1. भविष्यत् प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात् । श्व आदित्य उदेतेति ग्रहणं वा भविष्यति ॥
-लघीय० का० १४ । ६. शकटं रोहिणी धर्मों मुहूर्तान्ते भविष्यदुदेष्यदिति साध्यधर्मः, कुतः ? कृतिकोदयादिति
साधनम् । न खलु कृत्तिकोदयः शकटोदयस्य कार्य स्वभावो वा, केवलमविनामावबलाद् गमयत्येव स्वोत्तरम् । -तथा श्वः प्रातः आदित्यः सूर्यः उदेता उदेष्यति अद्यादित्योदयादिति प्रतिपद्येत । तथा श्वो ग्रहणं राहुस्पों भविष्यति एवंविधफलकांकादिति वा प्रतिपद्येत सर्वत्राव्यभिचाराद । -अभयचन्द्रसूरि, लघीय० ता० वृ० पृ० ३३ ।