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१९६ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ तेनैकलक्षणो हेतुः प्राधान्याद् गमकोऽस्तु नः । पक्षधर्मस्वादिभिस्स्वन्यैः किं व्यर्थः परिकल्पितैः ॥'
उत्थानिकावाक्य सहित इन कारिकाओंसे विदित है कि पात्रस्वामीने हेतुका लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व माना है ।
कमारनन्दि भट्टारकने भी अन्यथानुपपत्तिरूप एकलक्षणको ही लिंगका स्वरूप स्वीकार किया है। सिद्धसेनने अन्यथानुपपन्नत्वको हेतुलक्षण माननेकी जैन तकिकोंकी प्रसिद्धिको बतलाते हुए उसे ही हेतुलक्षण अंगीकार किया है। विशेष यह कि उन्होंने हेतुको साध्याविनाभावी कहकर अविनाभावको अन्यथानुपपन्नत्वका पर्याय प्रकट किया है, जिसका उत्लेख समन्तभद्र" पहले ही कर चुके थे। अकलंकने सूक्ष्म और विस्तृत विचारणाद्वारा पात्रस्वामीके उक्त हेतुलक्षणको पुष्ट किया है । न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रहमें 'प्रकृताभावेऽनुपपन्नं साधनं' अर्थात् जो साध्यके अभावमें न हो वह साधन है। और लघोयस्त्रयमें लिंगास्साध्याविनाभावामिनिबोधैकलक्षणात्' अर्थात् साध्यके साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह लिंग है, यह कह कर उन्होंने अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अविनाभावको ही हेतुलक्षण समर्थित किया है । न्यायविनिश्चयमें एक स्थलपर पात्रस्वामीको 'अन्यथा
१. तत्त्वसं का० १३६४, १३६५, १३६६, १३७६, पृ० ४०५-४०७ । २. अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते ।
-उद्धृत, प्रमाणप० पृ. ७२ । ३. अन्यथानुपपन्नत्वं हेतार्लक्षणमीरितम् ।
-न्यायाव० का०२२ । ४. साध्याविनाभुवो हेतोः।
-वही, का० १३ । साध्याविनामुवो लिंगात्।
-वही, का० ५। ५. आप्तमी का० १७.१८.७५ । ६. न्यायवि० का० ३२३ । ७. न्यायवि० का० २६९, अकलंकग्र० पृ० ६६ । ८. प्र० सं० का० २१, अकलंकग्र० पृ० १०२ । ९. (क) लघीय० का० १२, अकलंकग्र० पृ० ५ । (ख ) साध्यार्थासम्भवाभावनियमनिश्ययैकलक्षणो हेतुः।
-प्रमाणसं० स्वो० वृ० का० २१, अकलंकग्र० पृ० १०२ । (ग ) त्रिलक्षणयोगेऽपि प्रधानमेकलक्षणं तत्रैव साधनसामर्थ्यपरिनिष्ठितेः। तदेव
प्रतिबन्धः पूर्वदीतसंयोग्यादिसकलहेतुप्रतिष्ठापकम् । -अष्टश० अष्टस० पृ० २८६, आ० मी० का० १०६ । १०, न्या० वि० का० ३२३ ।