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१९२ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार वह बौद्धोंकी अपेक्षा प्रायः प्राचीन है। बौद्धोंको त्रिरूप हेतुकी मान्यता सम्भवतः वसुबन्धु और दिड्नागसे आरम्भ हुई है। चतुर्लक्षण : पंचलक्षण :
नैयायिकोंकी द्विलक्षण और त्रिलक्षण हेतुकी दो मान्यताओंका ऊपर निर्देश किया गया है । उद्योतकर और वाचस्पति मिश्रके' उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि न्यायपरम्परामें चतुर्लक्षण और पंचलक्षण हेतुकी भी मान्यताएँ स्वीकृत हुई हैं। वाचस्पतिने स्पष्ट लिखा है कि दो हेतु ( केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी) चतुर्लक्षण हैं तथा एक हेतु ( अन्वयव्यतिरेकी ) पंचलक्षण । जयन्तभट्टका मत है कि हेतु पंचलक्षण ही होता है, अपंचलक्षण नहीं। अतएव वे केवलान्वयीको हेतु ही नहीं मानते । शंकर मिश्रने हेतुकी गमकतामें जितने रूप प्रयोजक एवं उपयोगी हों उतने रूपोंको हेतुलक्षण स्वीकार किया है और इस तरह उन्होंने अन्वयव्यतिरेको हेतुमें पांच और केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी हेतुओंमें चार ही रूप गमकतोपयोगी बतलाये हैं । उक्त पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्वमें अबाधितविषयत्वको मिलाकर चार तथा इन चारमें असत्प्रतिपक्षत्वको सम्मिलित करके पांच रूप स्वीकार किये गये हैं । जयन्तभट्टका मत है कि गौतमने पांच हेत्वाभासों का प्रतिपादन किया है, अतः उनके निरासार्थ हेतुके पांच रूप मान्य है । वैशेषिक और बौद्धोंने भी हेतुके तीन रूपोंके स्वीकारका प्रयोजन अपने अभिमत तीन हेत्वाभासों ( असिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध ) का निराकरण बतलाया है। यहाँ वाचस्पति और जयन्तभट्टकी' एक नयी बात उल्लेखनीय है । उन्होंने जैन ताकिकों द्वारा अभिमत हेतुके एकलक्षण अविनाभावके महत्त्व एवं अनिवार्यताको
१. वाचस्पतिमिश्र, न्यायवा० ता० टी० १२११३५, पृ० २८९ । तथा पृ० १८९ । २. चशब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्धं चैत्येवं चतुर्लक्षणं पंचलक्षणमनुमानमिति ।
-न्यायवा० ११११५, पृ० ४६ । ३. तत्र चतुर्लक्षणं द्वयम् । एक पंचलक्षणमिति ।
-न्याय० ता० टी० ११११५, पृ० १७४ । ४. केवलान्वयी हेतुर्नास्त्येव अपंचलक्षणस्य हेतुत्वाभावात् ।
-न्यायकलि० पृ० ९७ । ५. वैशेषि० उप० पृ० १७ । ६. जयन्तभदृ, न्यायकलि० पृष्ठ० १४ । ७. वैशेषि० सू० ३।१।१५ । प्रश० मा० पृ० १०० । ८. न्यायप्र० पृ०३ । प्रमाणवा० १।१७।। ९. यद्यप्यविनाभावः पंचसु चतुर्ष वा लिंगस्य समाप्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिंग
रूपाणि संगृह्यन्ते, तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाभ्यां द्वयोः संग्रहे गोवलोवर्दन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासत्प्रतिपक्षत्वाबायितविषयत्वानि संगृहाति ।
-न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृ० १७८ । १०. एतेषु पंचलक्षणोषु अविनाभावः समाप्यते । -न्यायकलि० २ ।