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हेतु-विमर्श : १९१
मैका अनुमापक होता है। इससे विपरीत अलिंग ( लिङ्गाभास ) है । यहाँ 'अनुमेयसे सम्बद्धका पक्षधर्म, 'अनुमेयसे अन्वित में प्रसिद्ध' का सपक्ष में विद्यमान और 'अनुमेयाभावमें नहीं रहता है' का विपक्ष में अविद्यमान अर्थ है । काश्यपके इस प्रतिपादनसे अवगत होता है कि उन्हें हेतु त्रिरूप अभिमत है । उद्योतकरने' न्यायवार्तिकमें एक स्थलपर 'काश्यपीयम्' शब्दोंके साथ कणादका संशयलक्षणवाला 'सामान्यप्रत्यक्षात्'' आदि सूत्र उद्धृत किया है । उद्योतकरका यह उल्लेख यदि अभ्रान्त है तो यह कहने में कोई संकोच नहीं कि काश्यप कणादका ही नामान्तर था, जिन्होंने वैशेषिकदर्शनका प्रणयन एवं प्रवर्तन किया है । और तब हेतुको त्रिरूप माननेका सिद्धान्त कणादका है और वह अक्षपादसे भी पूर्ववर्ती है, यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है । प्रशस्तपादने कणादका समर्थन करते हुए उसका विशदीकरण किया है ।
सांख्य विद्वान माठरने भी हेतुको त्रिरूप बतलाया है ।
बौद्ध तार्किक न्यायप्रवेशकारने " भी हेतुको त्रिरूप प्रतिपादन किया, जिसका अनुसरण धर्मकीर्ति प्रभृति सभी बौद्ध विचारकोंने किया है ।
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इस प्रकार नैयायिकों, वैशेषिकों, सांख्यों और बौद्धों द्वारा हेतुका लक्षण रूप्य माना गया है । यद्यपि हेतुका रूप्य लक्षण बौद्धोंकी हो मान्यताके रूपमें प्रसिद्ध है, नैयायिकों, वैशेषिकों और सांख्योंकी मान्यता के रूपमें नहीं । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि रूप्य और हेतुके सम्बन्ध में जितना सूक्ष्म एवं विस्तृत विचार बौद्धतार्किकोंने किया तथा हेतुवार्तिक, हेतु बिन्दु जैसे तद्विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थोंका प्रणयन किया, उतना अन्य विद्वानोंने न विचार ही किया और न कोई उस विषयकी स्वतंत्र कृतियोंका निर्माण किया; पर उपर्युक्त अनुशीलनसे प्रकट है कि हेतुके रूप्यस्वरूपकी मान्यता वैशेषिकों, आद्य नैयायिकों और संख्योंकी भी रही है और
१. न्यायवा० पृ० ९६ ।
२. वैशेषिकसू० २२।१७ ।
३. यदनुमेयेनार्थेन···सहचरितमनुमेयधर्मान्विते चान्यत्र प्रसिद्धमनुमेयविपरीते च प्रमाणतोऽसदेव तदप्रसिद्धार्थस्यानुमापकं लिगं भवतीति । --
- प्रश० भा० पृ० १००, १०१
४. साख्यका० माठरवृ० का० ५ ।
५. हेतुस्त्रिरूप : । किं पुनस्त्रैरूप्यम् ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्वम्, विपक्षे चासत्वमिति ।
-न्यायप्र० पृ० १ ।
६. न्यायवि० पृ० २२, २३ । हेतुवि० पृ० ५२ । तत्त्वसं० का० १३६२ आदि । ७. न्यायवा० पृ० १२८ पर उल्लिखित ।