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अवयव-विमर्श: १७९ है। तथा जहां साध्यके न होने पर साधनका न होना ख्यापित किया जाता है उसे वैधर्म्य दृष्टान्त बतलाया है । विशेष यह कि इसमें उन्होंने पूर्वगृहीत व्याप्तिसम्बन्ध के स्मरणकी अपेक्षा भी बतलायो है। साथ ही वे' अन्तर्व्याप्तिसे ही साध्य-सिद्धि होनेपर बल देते हैं और उसके अभावमें उदाहरणको व्यर्थ बतलाते हैं ।
अकलंकका मत है कि दृष्टान्त अनुमेय-सिद्धि में सर्वत्र आवश्यक नहीं है। उदाहरणार्थ समस्त पदार्थोंको क्षणिक सिद्ध करने में कोई दृष्टान्त प्राप्त नहीं होता, क्योंकि सभी पदार्थ पक्षान्तर्गत हो जानेसे सपक्षका अभाव है । अतः बिना अन्वयके भी मात्र अन्तर्व्याप्तिके सद्भावसे साध्य-सिद्धि सम्भव है। हाँ, जहाँ दृष्टान्त मिलता है उसे दिया जा सकता है। अकलंकने' दृष्टान्तका लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जहां साध्य और साधन धर्म का सम्बन्ध निर्णीत होता है वह दृष्टान्त है। ___ माणिक्यनन्दिने भी दृष्टान्तके दो भेदोंका निरूपण किया है । अन्तर यह है कि उन्होंने साधर्म्य और वैधय॑के स्थानमें क्रमशः अन्वय और व्यतिरेक शब्द दिये हैं। जहाँ साध्यके साथ साधनकी व्याप्ति दिखाई जाए उस स्थानको अन्वयदृष्टान्त तथा जहाँ साध्यके अभावको दिखाकर साधनका अभाव दिखाया जाए उसे व्यतिरेक दृष्टान्त कहा है।
देवसूरि व्याप्तिस्मरणके आस्पद ( महानसादि को दृष्टान्त कहते हैं । माणिक्यनन्दिने दृष्टान्तके सामान्यलक्षणका प्रतिपादक कोई सूत्र नहीं रचा । पर देवसूरि
१. अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धर्बहिरुदाहृतिः । व्यर्था स्यात् तदसद्भावेऽप्येवं न्यायविदो विदुः ॥
न्यायाव० का २० । २. सर्वत्रैव न दृष्टान्तोऽनन्वयेनापि साधनात् ।
अन्यथा सर्वमावानामसिद्धोऽयं क्षणक्षयः ॥
-न्यायवि० का० ३८१ । ३. सम्बन्धो यत्र निर्शतः साध्यताधनधर्मयाः । स दृष्टान्तः तदाभासाः साध्यादिविकलादयः ॥
-न्यायवि० का० ३८० । ४. दृष्टान्तो द्वेधा, अन्वयव्यतिरेकमेदात् ।
साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः । साध्याभावे साधनाभावा यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः
-प० मु० ३१४७, ४८, ४६ । ५. प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरास्पदं दृष्टान्त इति ।
-प्र० न० त० ३।४३, पृ० ५६७ ।