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अवयव-विमर्श : १७
न्याय और वैशेषिक ताकिर्कोने पंचावयवके प्रतिपादक वचनोंको परार्थानुमान स्वीकार किया है । पर ज्ञानको प्रमाण मानने वाले जैन' और बौद्ध २ विचारकोंने वचनको उपचारसे परार्थानुमान कहा है। उनका अभिमत है कि वक्ताके स्वार्थानुमानके विषय (साध्य और साधन ) को कहने वाले वचनोंसे श्रोता (प्रतिपाद्य ) को जो अनुमेयार्थका ज्ञान होता है वह ज्ञानात्मक मुख्य परार्थानुमान है और उसके जनक वक्ताके वचन उसके कारण होनेसे उपचारतः परार्थानुमान है।
विचारणीय है कि वक्ताका कितना वचनसमूह प्रतिपाद्यके लिए अनुमेयकी प्रतिपत्तिमें आवश्यक है ? न्यायसूत्रकार और उनके अनुसर्ता वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, जयन्तभट्ट प्रभृति न्यायपरम्पराके ताकिकों तथा प्रशस्तपाद आदि वैशेषिक विद्वानोंका मत है कि प्रतिज्ञा, हेतु" उदाहरण', उपनय और निगमन ये पांच वाक्यावयव अनुमेय-प्रतिपत्तिमें आवश्यक हैं। इनमेसे एकका भी अभाव रहने पर अनुमान सम्पन्न नहीं हो सकता और न प्रतिपाद्यको अनुमेयको प्रतिपत्ति हो सकती है।
सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकारने ° उक्त पंचावयवोंमें जिज्ञासा, संशय, प्रयोजन, शक्यप्राप्ति और संशयव्युदास इन पांच अवयवोंको और सम्मिलित करके
१. परार्थ तु तदर्थपरामर्शिवचनाज्जातम् । तद्वचनमपि ततुत्वात् ।
-माणिक्यनन्दि, परी० मु० ३।५५, ५६ ।। पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारादिति ।
-देवसूरि, प्र० न० त० ३।२३ । २. धर्मकीर्ति, न्यायांब० तृ० परि० पृ० ४६ । तथा धर्मोत्तर, न्यायवि० टी० पृ० ४६ । ३. प्रतिज्ञाहतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ।
-न्यायसू०१।१३२ । ४. अवयवाः पुनः प्रतिशाऽपदेशनिदर्शनानुसन्धानपत्याम्नायाः ।
-प्रश० भा० पृ० ११४ । ५, ६, ७, ८. प्रशस्तपादने हेतुके स्थानमें अपदेश, उदाहरणके लिए निदर्शन, उपनयकी
जगह अनुसन्धान और निगमनके स्थानपर प्रत्याम्नाय नाम दिये हैं। पर
अवयवोंकी पाँच संख्या तथा उनके अर्थमें प्रायः कोई अन्तर नहीं है। ९. असत्यां प्रतिज्ञायां अनाश्रया हेत्वादयो न प्रवर्तरन् । असति हतो कस्य साधनभावः
प्रदश्येत निगमनाभावे चानभिव्यक्तसम्बन्धानामेकार्थन प्रवर्त्तनं 'तथा' इति प्रतिपादनं कस्य।
-वात्स्यायन, न्यायभा० १६१६३६, पृ० ५३ । १०. युक्तिदो० का० १ की भूमिका, पृ० ३ तथा का० ६, पृ० ४७-५१ ।