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अवयव-विमर्श: १६५
विद्यानन्दने' विशेष ( व्युत्पन्न ) प्रतिपाद्यकी अपेक्षासे पक्ष और हेतु इन दो अवयवोंके प्रयोगका स्पष्ट निर्देश किया है।
माणिक्यनन्दिर, प्रभाचन्द्र', देवसूरि और हेमचन्द्र भी अकलङ्क और विद्यानन्दका अनुगमन करते हैं । इन सभीने लिखा है कि साध्यधर्मके आधारका निर्णय और साधनके आश्रयका उद्घोषण करने के लिए पक्षका प्रयोग आवश्यक है। उसके अभावमें व्युत्पन्नोंको भी साध्यधर्माधारमें सन्देह हो सकता है। अतः उसे दूर करने के लिए पक्षका प्रयोग करना चाहिए। दूसरे, त्रिरूप हेतुको कह कर उसका समर्थन करने पर तो पक्षका स्वीकार अनिवार्य है, क्योंकि पक्ष के बिना समर्थन-असिद्धादि दोष परिहार नहीं हो सकता। इसी प्रकार साध्यसिद्धि के लिए तथोपात्त अथवा अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुका प्रयोग भी अत्यन्त आवश्यक है । उसके अभावमें अभिप्रेतकी सिद्धि सम्भव नहीं। इस प्रकार पक्ष और हेतु ये दो ही परार्थानुमानके अवयव हैं । इन दोके द्वारा ही व्युत्पन्न प्रतिपाद्यको अनुमेयका ज्ञान हो सकता है। ___ उनके लिए दृष्टान्तादिको अनावश्यकता बतलाते हुए माणिक्यनन्दिने सयुक्तिक प्रतिपादन किया है कि दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवोंका स्वीकार शास्त्र ( वीतराग कथा ) में ही है, वाद ( विजिगोपु कथा ) में नहीं, क्योंकि वाद करने वाले व्युत्पन्न होते हैं और व्युत्पन्नोंको दृष्टान्तादिकी आवश्यकता ही नहीं। वे कहते हैं कि दृष्टान्त न साध्यज्ञानके लिए आवश्यक है और न अविनाभावके निश्चयके लिए; क्योंकि साध्यका ज्ञान निश्चित साध्याविनाभावी हेतुके प्रयोगसे होता है और आवनाभावका निश्चय विपक्षमें बाधक रहनेसे होता है। दूसरी बात यह है कि दृष्टान्त व्यक्तिरूप होता है और अविनाभाव ( व्याप्ति )
१. साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः साधनस्य च । वचः प्रयुज्यते पत्रे विशेषाश्रयतो यथा ।
साध्यांनर्देशसहितस्यैव हताः प्रयोगार्हत्वसमर्थनात् ।
–५० ५० पृ० ९। २, ३. एतद्वयमेवानुमानाचं नोदाहरणम् ।
-५० मु० ३३७ । प्रमेयक० मा० ३।३७ ४. पक्षहतुवचनलक्षणमवयवद्वयमेव परप्रतिपत्तेरंगं न दृष्टान्तादिवचनम् ।
-प्र० न० त० ३२८ । ५. एतावान् पंक्षप्रयोगः ।
-प्र० मी० २११९, पृ० ५२ । ६. साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् । को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा
समर्थयमानो न पक्षयति ।
-५० मु० ३१३४, ३६ । १० न० त० ३२४, २५ । प्र० मो० २१८। ७, ८. ५० मु० ३।४६, ३८, ३९, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४ ।