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१६४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार
और हेतु ये दो ही अवयव पर्याप्त है। दृष्टान्त किसी प्रतिपादविशेष अथवा स्थल विशेषकी अपेक्षा ग्राह्य है, सर्वत्र नहीं। ___ आ० विद्यानन्दने प्रमाणपरीक्षा और पत्रपरोक्षामें कुमारनन्दि भट्टारकके वादन्यायके, जो आज अनुपलब्ध है, कुछ उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिनमें बताया गया है कि परार्थानुमानके अवयवोंके प्रयोगकी व्यवस्था प्रतिपाद्योंके अनुसार की जानी चाहिए।
कुमारनन्दिने अवयवव्यवस्थामें एक नया मोड़ उपस्थित किया। इस मोड़को हम विकासात्मक कह सकते है । उन्होंने अवयवोंके प्रयोगको 'प्रति गद्यानुरोधत:' (प्रतिपाद्यानुसार ) कह कर स्पष्टतया नयी दिशा प्रदान की है। लिखा है कि जिस प्रकार विद्वानोंने प्रतिपाद्योंके अनुरोधसे प्रतिज्ञाको कहा है उसी प्रकार उनकी दृष्टिसे उन्होंने उदाहरणादिको भी बतलाया है।
विद्यानन्दने प्रायः कुमारनन्दिके शब्दोंको ही दोहराते और उनके आशयको स्पष्ट करते हुए कहा है कि परानुग्रहप्रवृत्त आचार्योंने प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्योंके अनुसार स्वीकार की है । यथा
( क ) प्रयोगपरिपाव्याः प्रतिपाचानुरोधतः परानुग्रहप्रवृत्तैरभ्युपगमात् ।४ ( ख ) बोध्यानुरोधमात्रात्तु शेषावयवदर्शनात् ।"
विद्यानन्दके इस प्रतिपादनसे स्पष्ट है कि पक्ष और हेतु ये दो अवयव व्युत्पन्नों और शेष ( दृष्टान्तादि ) अवयव बोध्योंके अनुरोधसे प्रदर्शित हैं । तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकमें उन्होंन' सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न ये तीन प्रकारके बोध्य ( प्रतिपाद्य ) बतलाये हैं तथा उनके बोधार्थ सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न रूप साध्य ( पक्ष ) का प्रयोग निर्दिष्ट किया है । पत्रपरीक्षामें पत्रलक्षणके प्रसङ्गमें
१. तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकैः
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । प्रयागपारपाटो तु प्रतिपाद्यानुराधतः ।।
-० ५० पृ० ७२ । २. तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याय निगदितत्वात्तदाह
प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्जैस्तथादाहरणादिकम् ॥ अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । प्रयोगपरिपाटो तु प्रतिपायानुरोधतः ॥
-प्र०प० पृ०३। ३. पत्रप० पृ० ३ तथा उपयुक १ व २ नंबरका फुटनोट । ४. प्र० ५० पृ. ७२ । ५. ५०प० पृ० १७। ६. त० श्लो० १११३६३५३-३६१, पृ० २१५ ।