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म्याति-विमर्श : १५६ है । अतः साध्य-साधनव्यक्तियोंका ज्ञान सामान्यलक्षणा द्वारा हो जानेपर भी 'धूम वह्निव्याप्य है, देशान्तर-कालान्तरमें वह्निके बिना नहीं होता' इस प्रकारका ज्ञान चिन्ता अथवा तर्क या ऊह द्वारा ही सम्भव है और वह संवादी होनेसे प्रमाण है। प्रमाणके विषयका परिशोधक या प्रमाणानुग्राहक माननेपर' भी उसे प्रमाण अवश्य मानना चाहिए, क्योंकि अप्रमाणसे न तो प्रमाणविषयका परिशोधन ही हो सकता है और न प्रमाणोंका अनुग्रह । अन्यथा संशयादिसे भी वह हो जाना चाहिए। निष्कर्ष
अनुमानप्रमाणके लिए आवश्यक साध्य-साधनोंके अविनाभाव (व्याप्ति )का निश्चय जैन तार्किक जिस तर्क द्वारा स्वीकार करते हैं वह भारतीय वाङ्मय में अपरिचित नहीं है। ऋग्वेदमें ऊह धातुसे उसका उल्लेख है। पाणिनि व्याकरणसूत्र में भी ऊह धातुसे उसका निर्देश है । स्वयं तर्क शब्द कठोपनिषद् और रामायणके" अतिरिक्त जैनागमों, पिटकों और दर्शनसूत्रों में उपलब्ध है । जैनागमोंमें उसके लिए 'चिन्ता और ऊहा 'शब्द भी आये हैं, उनका सामान्य अर्थ एक ही है और वह है विचारात्मक ज्ञानव्यापार । उसी अथवा कुछ भिन्न भावका द्योतक ऊह शब्द जैमिनीयसूत्र और उसके शाबरभाष्य आदिमें भी पाया जाता है।
१. प्रमेयक० मा० ३।१३, पृ० ३५२,३५३ । २. ऋग्वेद २०।१३।१०। ३. 'उपसर्गाद्धस्व ऊहतेः।'
-पा० सू० ७।४।२३ । ४. 'नैषा तकंण मतिरपनेया।'
-कठो० २।। ५. रामायण ३।२५।१२ । ६. 'तक्का जत्थ न विज्जा ।
-आचा० सू० १७० । ७. 'विहिंसा वितर्क ।'
-मज्झि० सव्वासवसू० २।६। ८. 'तर्काप्रतिष्ठानात् ।'
-ब्रह्मम० २१११११ । ९. 'सण्णा सदी मदी चिता चेदि ।'
-पट्टख० ५।५।४१ । ईहा ऊहा अपोहा मग्गणा गवसणा मीमांसा ।
-वही ५।५।३८। १०. त्रिविधश्च ऊहः।
-शाबरभा०हा।
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