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१५२ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार पं० सुखलाल जी संघवोका' मत है कि धर्मकीर्ति और अर्चटसे प्रभावित होकर ही हेमचन्द्रने यह निरूपण अपनाया है।
धर्मभूषणने भी व्याप्तिका प्रकाशक तर्कको ही माना है। उनका कहना है कि व्याप्ति सर्वोपसंहारवती होती है । अर्थात् 'जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि होती है' इस उदाहरणमें धूमके होने पर अनेकबार अग्निकी उपलब्धि और अग्निके अभावमें धूमकी अनुपलब्धि पायी जानेपर 'सब जगह और सब कालमें धुआं अग्निका व्यभिचारी नहीं है-अग्निके होनेपर ही होता है और अग्निके अभाव में नहीं होता' इस प्रकारके सर्वदेश ओर सर्वकाल व्यापी व्यापारका नाम व्याप्ति है । उसका ग्रहण प्रत्यक्षादिसे सम्भव नहीं है। इन्द्रियप्रत्यक्ष नियत और वर्तमान ग्राही है। वह इतने लम्बे व्यापारको नहीं कर सकता। मानसप्रत्यक्ष यद्यपि उसे ग्रहण कर सकता है किन्तु वह ज्ञान विशदज्ञान है और उपर्युक्त सर्वोपसंहारी व्याप्तिज्ञान अविशद है । अतः उसे मानस प्रत्यक्ष भी नहीं कहा जा सकता। अनुमान द्वारा भी व्याप्ति ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि अनुमानकी उत्पत्ति स्वयं व्याप्तिज्ञानके अधीन है। अतः स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और अनेकों बारका हुआ प्रत्यक्ष ये तीनों मिलकर एक ऐसे ज्ञानको उत्पन्न करते हैं जो व्याप्तिके ग्रहण करने में समर्थ है और वह तर्क है।
योगिप्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिग्रहणकी बात इसलिए निरर्थक है, क्योंकि योगी तो प्रत्यक्षसे ही समस्त साध्य-साधनोंको जान लेता है, अतः उसे न व्याप्तिग्रहणकी आवश्यकता है और न अनुमानकी ही । व्याप्तिग्रहण और अनुमानकी आवश्यकता अल्पज्ञोंके लिए है । अतएव अल्पज्ञोंको व्याप्तिका अविशद किन्तु अघिसंवादो ज्ञान करानेवाला तर्कप्रमाण ही है।
सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तिसे अग्नित्वेन समस्त अग्नियों और धूमत्वेन सकल धूमोंका ज्ञान हो सकता है, पर उनके व्याप्तिसम्बन्धका ज्ञान उससे सम्भव नहीं
१. पं० सुखलाल संघवी, प्र० मी० भाषाटि० पृष्ठ ७९ । २. व्याप्तिशानं तकः। स च तकस्तां व्याप्तिं सकलदेशकालोपसंहारेण विषयीकरोति...
यत्र यत्र धूमक्त्वं तत्र तत्राग्निमत्वमिति सोपसंहारवती हि व्याप्तिः । 'प्रत्यक्षस्य सन्निहितदेश एव धूमाग्निसम्बन्धप्रकाशनान्न व्याप्तिप्रकाशकत्वम् । "अनुमानादिकं तु व्याप्तिग्रहणं प्रत्यसंभाव्यमेव ।
--न्या० दी० पृ० ६२-६४ । ३. ( क ) त० श्लो० १।१०।१५६, पृष्ठ १७९ ।
(ख) प्रमेयक० मा० ३६१३, पृ० ३५१ ।
(ग) जैनदर्शन, पृष्ठ ३०७ । ४. सि. मु. प्रत्यक्षखण्ड पृष्ठ ४९, तथा उक्त जैन दर्शन पृष्ठ ३०७, दि० संस्करण ।